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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
को मोह, मिथ्यात्व-ज्वर को राग, शूल को द्वष, खुजली को काम, गलितकुष्ठ को भय-शोक अरति, नेत्र-रोग को अज्ञान और जलोदर को प्रमाद समझें।
रोगों के उपादान कारण
इस प्रकार मिथ्यात्व, राग, द्वेष, काम, दीनता, अज्ञान और प्रमाद आदि भाव-रोगों से यह जीव सर्वदा विह्वल बना रहता है और इस कारण उसकी चिन्तन शक्ति नष्ट हो जाती है। जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि उसकी विचारशक्ति लुप्त हो जाने से वह भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय प्रादि से विवेकशून्य होकर स्वनिर्मित चिन्तनरूपअन्धकार में भटकता रहता है और 'परलोक इत्यादि नहीं हैं के कुविकल्पों से ग्रस्त रहता है। अज्ञान और कुविकल्प इन दोनों को उत्पत्र करने वाले सहकारी कारण के रूप में कुतर्क-ग्रन्थ, उनके प्रणेता और उपदेशक हैं तथा राग, द्वष, मोह आदि उपादान कारण के रूप में अतरंग कारण हैं। अतएव पूवोंक्त समस्त अनर्थों को परम्परा को प्रगाढ़ रूप से उत्पन्न करने वाले और बढ़ाने वाले परमार्थतः (वस्तुतः) राग, द्वष मोहादि को समझों। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि कुशास्त्रों के संस्कार तो यदा-कदा ही होते हैं किन्तु राग, द्वष, मोहादि तो सर्वदा ही अनर्थ-परम्परा को उत्पन्न करते हैं। यह भी लक्ष्य में रखना चाहिये कि किसी के लिये कुदर्शन-शास्त्रों का श्रवण अनर्थ की परम्परा का निमित्त बनता है और किसी के लिये नहीं भी बनता है। यह विभेद है, किन्तु रागादि के कारण तो जीव निश्चित रूप से महा अनर्थ के गडढे में गिरता ही है, इसमें किसी प्रकार का कोई विकल्प या संदेह नहीं है। इन रागादि दोषों से अभिभूत जीव अज्ञान रूप महाअन्धकार में प्रवेश करता है, अनेक प्रकार के विकल्पों से मन को दूषित करता है, सैकड़ों प्रकरणोय कार्य करता है और महाकठोर कर्म-समूहों का संचय करता है। ऐसे संचित कर्मों के परिणाम स्वरूप यह जीव कदाचित् देवगति में उत्पन्न होता है, कदाचित् मनुष्य गति में पैदा होता है, कदाचित् पशुभाव (तिर्यञ्च योनि को प्राप्त करता है और कदाचित् महानरक में पड़ता है। ऊपर चारों गतियों के दुःखों का वर्णन किया जा चुका है, तदनुसार यह जीव अनन्तवार 'अरघट्ट घटीयत्र' के न्यायानुसार महादुःखों का अनुभव करता है और चारों ओर भटका करता है। ऐसी अवस्था होने से, जैसा कि उस भिखारी के वर्णन में पहले कहा गया था कि 'वह सदी, गर्मी, डाँस, मच्छर, भूख, प्यास प्रादि अनेक प्रकार की पीड़ाओं से व्यथित और दुःखी होकर नरक जैसी यन्त्रणा सहन कर रहा था' ये सब दशायें इस जीव के साथ पूर्णतया मेल खाती हैं।
[ ४ ] कृपा, हास्य, कीड़ा-स्थान
इस दरिद्री के प्रसंग में पूर्व में कहा जा चुका है कि:--'इसका स्वरूप सज्जनों के लिये दया का स्थान, दुजनों की दष्टि में हँसी-मजाक का पात्र, बालकों के लिये
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