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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
आचरण करता है। इस प्रकार विविध प्रकार के पापों का सेवन करने के कारण वह प्राणी निविड विविध पाप-समह का बन्धन कर नरक में पड़ता है। वहाँ नरक में उस जीव को कुम्भीपाक (भयकर अग्नि) में पचाया जाता है, करवत से काटा जाता है, वज्र जैसे तीक्ष्ण काँटेदार शाल्मली वृक्ष पर चढ़ाया जाता है, संडासी से मख खोलकर तपा हुआ सीसा पिलाया जाता है, स्वय का मांस खिलाया जाता है, अत्यन्त तपी हुई भट्टियों में भुजा जाता है, पीप, चरबी, खून, मल, मूत्र और प्रांतड़ियों से कलुषित वैतरणी नदी में तिरना पड़ता है और तलवार के समान तीक्ष्णधारा वाले वृक्ष के पत्तों से शरीर छदित किया जाता है। इस प्रकार निज के पाप-समूह से प्रेरित होने से परमाधार्मिक असुर समस्त प्रकार की पीड़ाय प्रदान करते हैं।
नरक गति में विश्व के समस्त पुद्गल राशि का एक साथ भक्षण करने पर भी उस जीव की भूख शान्त नही होती। विश्व के समस्त समुद्रों का पानी एक बार में पीने पर भी उसकी प्यास नहीं बुझती। भयंकर शोत-वेदना और भयंकर गर्मी भोगनी पड़ती है । अन्य नारकीय जीव उसको अनेक प्रकार के दुःख देते हैं। सी अवस्था में यह जीव भयंकर दुःखों से आकुल-व्याकुल होकर बूम पाड़ता हुआ 'ओ माँ, मझे बचाओ! ओ बाप ! मुर्भ. बचाओ' !! कहता हुआ चिल्लाता रहता है, परन्तु वहाँ उसके शरीर को बचाने वाला कोई नहीं होता है।
__ कदाचित् नारकीय भयकर महादुःखों से उस जीव का पिण्ड छूट जाता है तो, वह तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होता है । तियंञ्च गति में भी उस जीव को अत्यधिक बोझा ढोना पड़ता है। बेंत, लकड़ी आदि से उसकी कुटाई होती हैं। उसके कान, पछ आदि छेदे जाते हैं। जोंक आदि कीड़े उसका खून चूसते हैं। उसको भूख सहन करनी पड़ता है। प्यास से मर जाता है, इत्यादि विभिन्न प्रकार की यातनायें उस जीव को भोगनी पड़ती हैं।
तिर्यञ्च गति से भी निकल कर कदाचित् यह जीव मनुष्य भव प्राप्त करता है, तो यहाँ भी यह जीव अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित होता है। मनुष्य भव में हजारों प्रकार के रोगों से घिरा हुआ कष्ट पाता है। बुढ़ापे के विकार उसको जर्जरित कर देते हैं। दुष्ट लोग दुःख देते हैं। प्रियजनों का वियोग विह्वल कर देता है। अनिष्ट पदार्थ या प्राणियों का सम्बन्ध व्यथित कर देता है। धन का हरण होने से रक बन जाता है । स्वजन-सम्बन्धियों के मरण से आकुल-व्याकुल हो जाता है और विविध प्रकार के सकल्प-विकल्पों से व्यथित रहता है।
कदाचित् यह जीव देवगति में देव बन जाता है, तो वहाँ भी उसे विविध प्रकार की वेदनायें सहन करनी पड़ती हैं। इन्द्रादि के आदेशों का विवश होकर पाठन करना पड़ता है। अन्य देवों के उत्कर्ष को देखकर खेद होता है। पूर्वभवों में आचरित स्वय की भूलों का स्मरण होने से ग्लानि होती है। अन्य देवों की
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