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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध २६ प्रसन्न रखने के लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहना। जो प्राणी सदबुद्धि की सम्यक प्रकार से आराधना (सेवा) कर उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न नहीं करते उन पर हमारे महाराज, मैं स्वयं और इस भवन में रहने वाला कोई भी व्यक्ति प्रसन्न नहीं रहता। जिस पर सद्बुद्धि की अकृपा हो, वह प्राणी सर्वदा दुःख भोगने के लायक गिना जाता है। उसकी प्रसन्नता के अतिरिक्त इस लोक में सुख देने वाला कोई दूसरा हेतु नहीं है। मेरे जैसे जो स्वाधीन हैं वे तो तेरे जैसों से दूर रहने वाले होते हैं अर्थात् वे तो तेरे पास कभी-कभी ही आ सकते हैं पर सद्बुद्धि तो सर्वदा तेरे पास ही रहेगी, अतः अपने सुख के लिये तुझे उसकी आराधना कर उसे सर्वदा प्रसन्न रखना चाहिये।' जब निष्पुण्यक ने इस सम्बन्ध में हाँ भरी तब धर्मबोधकर ने सद्बुद्धि को उसकी परिचारिका नियुक्त किया और तब से वह निष्पुण्यक की ओर से निश्चिन्त हुआ। [३७०-३८१] सदबुद्धि का फल थोडे दिन सदबुद्धि निष्पुण्यक के पास रही, इससे उसमें क्या परिवर्तन आया, वह सुनें-अभी तक द्रमुक आसक्तिवश तुच्छ भोजन अधिक करता था, पर अब वह तुच्छ भोजन बहुत कम करता और उसके विषय में उसे चिन्ता भी नहीं रहती। बहुत समय से उसकी अपथ्य भोजन की आदत पड़ी हुई थी जिससे वह अभी भी कभी-कभी थोड़ा सा अपथ्य भोजन कर लेता था, पर तृप्ति मात्र के लिये ही, और वह भी बहुत गृद्धि (आसक्ति) से नहीं। इससे उसके मन की शान्ति और स्वास्थ्य का नाश नहीं हो पाता। वह अभी तक बहुत आग्रह करने से औषधियों का सेवन करता था, पर अब स्वयं प्रसन्नता पूर्वक तानों औषधियों का सेवन करता और औषधि सेवन की रुचि भी उसमें जागृत हो गई। अपथ्य भोजन के प्रति प्रीति घटने और औषध सेवन के प्रति प्रीति बढ़ने से उसे जो लाभ हुआ उसे भी बताता हूँ--पहले उसके शरीर में रही हुई व्याधियों से उसे जो पीड़ा होती थी वह अब क्षीण होने लगी और रोग भी कम होने लगे। कभी-कभी थोड़ी पीड़ा उठ खड़ी भी होती तो वह थोड़ी देर में शान्त हो जाती और अन्त में मिट जाती। वास्तविक सुख का रस कैसा होता है, इसका रस अब उस दरिद्री को मिलने लगा। उसका भयंकर रूप दूर होता गया और स्वास्थ्य लाभ से शरीर में शान्ति व्याप्त होती गई जिससे उसके मुख पर सन्तोष दिखाई देने लगा। [३८२-३८८] सद्बुद्धि के साथ वार्ता ३४. एकान्त में रहते हुये, अपने मन में अत्यन्त प्रसन्न होते हुये उसने एक दिन निराकूलता से सदबुद्धि से कहा---'भद्रे ! मेरे शरीर में यह कैसी नवीनता आ गई है। आश्चर्य है ! तू देख तो सही ! अभी तक जो शरीर सब दुःखों से आकीर्ण था वही शरीर अब सुख से परिपूर्ण दिखाई दे रहा है।' सद्बुद्धि ने उत्तर दिया--'भद्र ! भली प्रकार पथ्य सेवन से और शरीर को हानि पहुंचाने वाली समस्त दोष-मलक वस्तुओं के प्रति अलोलुप (अनासक्त) रहने से ही यह सब लाभ हुआ है। पूर्वकालीन अभ्यास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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