SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा इस ग्रन्थ अधिकारी परमार्थ के लिये सर्वज्ञ-प्ररूपित सिद्धान्त-समद्र में से बौंद के समान इस कथा को महासमुद्र में से खींचकर बाहर निकाला है। दुर्जन मनुष्य इस कथा को सुनने के योग्य नहीं हैं। अमृत बिन्दु और कालकूट विष का संयोग किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता । दुर्जन मनुष्य के दूषणों पर भी विचार नहीं करना चाहिये । पाप को उत्पन्न करने वाली पापी मनुष्यों की कथा कहने से क्या लाभ ? यदि दुर्जन की स्तुति भी करें, तो भी वह काव्य में से दोष ही ढूंढ निकालेगा और उन दोषों का विशेष रूप से प्रकाशन करेगा । यदि उसकी निन्दा करेंगे, तो वह और भी अधिक दोष निकालेगा, अतः ऐसे प्राणी के प्रति उपेक्षा-भाव रखना ही श्रेयस्कर है। दुर्जन प्राणी की निन्दा करने से स्वयं में भी उसकी दुर्जनता का कुछ अंश पाता ही है और उसकी प्रशंसा करने से असत्य-भाषण होता है,* अतः उनके सम्बन्ध में उपेक्षा ही उचित है । क्षीर समद्र जैसे निर्मल और विशाल हृदय वाले, गम्भीर मानस वाले, लघुकर्मी भव्य सज्जन ही इस कथा को सुनने के अधिकारी हैं। ऐसे अधिकारी सज्जनों की निन्दा नहीं करनी चाहिये, उनकी प्रशसा करने की भी आवश्यकता नहीं है, उनके सम्बन्ध में मौन रहना ही समचित है; क्योंकि अनन्त गुणशाली सज्जनों की निन्दा करना महापाप है। मेरे जैसा सामान्य बुद्धि वाला उनके गुणानरूप उनकी स्तुति या श्लाघा कर सके, यह अशक्य है। सज्जन पुरुषों की यह विशेषता होती है कि उनकी स्तवना-प्रशंसा न करने पर भी वे काव्य स्थित गुणों को देख सकते हैं, परख सकते हैं। यदि काव्य में कोई दूषण भी हो, तो वे उसको ढक सकते हैं; क्योंकि वे स्वभाव से ही सार-ग्रहण करने वाले महात्मा होते हैं, अतः उनकी प्रशंसा करने की आवश्यकता नहीं है। मैं केवल ऐसे विशाल हृदय और बुद्धिवाले मनीषियों से अनुरोध करता हूँ कि वे इस कथा को भली प्रकार सुनें। उनसे यह निवेनद करने के लिए ही मैंने उक्त वर्णन किया है [१०१-११०] हे भव्य जीवों ! मेरे अनुरोध को स्वीकार कर, आप अपने मन को स्थिर कर, कान खोलकर, मैं जो कह रहा हूँ उसे कुछ समय तक ध्यान पूर्वक श्रवण करें [१११] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy