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________________ ४३० उपमिति-भव-प्रपंच कथा चारों तरफ की दिव्यगन्ध से आकर्षित होकर भौंरों के झुड वहाँ गुजारव करने लगे जिससे वह प्रदेश क्षणमात्र में अति रमणीय और सुगन्ध से महक उठा। भक्तिरस में लीन देवों ने चन्दन का केवली के शरीर पर लेप किया, दिव्य धूप से सुवासित किया और अपने तेजस्वी देदीप्यमान मुकुट युक्त सिरों को मुनीश्वर के चरणों में झुकाकर उनकी स्तुति करने लगे तथा पाप-शुद्धि के लिए उनकी चरण-रज को अपने मस्तक पर लगाकर अपना अहोभाग्य मानने लगे । ___इस प्रकार देवगण अतिशय प्रमोदपूर्वक मुनीश्वर के समक्ष खड़े थे तभी उन्होंने समुद्घात (एक साथ प्रबल वेग से कर्मों का नाश) अवस्था को प्राप्त किया। क्षणमात्र में समुद्घात द्वारा अशेष कर्मों का समीकरण करते हुए तीनों योगों का निरोध करने लगे। क्रमशः चौदहवें गुरणस्थान पर पहुँचकर, शरीर के योग का भी निरोध कर, शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए। शैलेशीकरण कर अन्तमुहर्त में परमपद मोक्ष प्राप्त किया। उस समय देवताओं ने उनकी विशेष रूप से महापूजा की और अपने कर्तव्य का पूर्णतया पालन करते हुए अत्यन्त आनन्दपूर्वक अपने पापों को नष्ट कर अपनेअपने स्थान को गये । [६६४-६७३] महाभद्रा का मोक्षगमन देवी महाभद्रा साध्वी ने भी प्रतिनी के योग्य अपने कर्त्तव्य को पूरा किया और क्रमश: प्रगति करती हुई क्षपक क्षेणी पर आरूढ होकर सर्व कर्मों को भस्मीभूत कर मोक्ष पधारी । इन्होंने भक्तपरिज्ञा अनशन (खाने-पीने का त्याग, पर चलनेफिरने का त्याग नहीं) द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। [६७४] सुललिता का मोक्षगमन सुललिता साध्वी ने पूर्व-वरिणत अनेक प्रकार के तप किये, परिणामस्वरूप जैसे रत्न खार से निर्मल हो जाता है वैसे ही उनका चित्तरत्न अधिक निर्मल होता गया। अन्त में शरीर रूपी पिंजरे को छोड़कर कर्मों का क्षय कर इन्होंने भी भक्तपरिज्ञा अनशन द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। [९७५-६७६]* श्रीगर्भ का देवलोक-गमन : सामान्य प्रगति ___ श्रीगर्भ राजा तथा अन्य तपोधन साधुओं ने भी अनेक प्रकार के तपों की आराधना की और अन्त में देवलोक गये । सुमंगला आदि साध्वियाँ भी देवलोक में गईं । अधिक क्या ? संक्षेप में कहा जाय तो मनोनन्दन उद्यान में जितने भी प्राणी समन्तभद्राचार्य के चरणों के निकट आये थे और जिन्होंने अनुसुन्दर का • पृष्ठ ७७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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