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२० मोक्ष- गमन
समन्तभद्र का मोक्ष-गमन
I
सैद्धान्तिक रहस्यों के ज्ञाता आचार्य समन्तभद्र की वाणी से पुण्डरीक मुनि के समस्त संदेह नष्ट हो गये । वे क्रमश: द्वादशांगी के पारगामी विद्वान् बने । प्राचार्य समन्तभद्र की कृपा से अनन्त गम-पर्याय युक्त सभी भावों को विस्तार पूर्वक जान गये । उन्होंने गहन अभ्यास एवं चिन्तन-मनन द्वारा आगम के रहस्य ज्ञान को हृदयंगम किया । फिर आचार्यश्री ने इन्हें द्वादशांगी सूत्र की व्याख्या करने और गच्छ संभालने की आज्ञा दे दी । अपने प्राचार्य पद का स्थान पुण्डरीक मुनि को देते हुए समन्तभद्राचान्त प्रसन्न हुए। अपने पीछे शासन के रक्षक की स्थापना कर, योग्य व्यक्ति को उसके योग्य पद पर स्थापित कर वे अपने कर्त्तव्य से उऋण हुए और मन में संतुष्ट हुए । पुण्डरीक मुनि को प्राचार्यपद पर प्रतिष्ठित करने की प्रसन्नता में आठ दिन तक देवों और मनुष्यों ने विधि पूर्वक एवं श्रानन्द से देव और संघ की पूजाभक्ति की । * अन्त में समन्तभद्राचार्य ने अपने शरीर रूपी पिंजर को त्याग कर, कृतकृत्य होकर मोक्ष प्राप्त किया । [ ६१५- ६२०]
पुण्डरीक का मोक्ष गमन
इसके पश्चात् पुण्डरीक ग्राचार्य की भी प्रगति होने लगी । पहले उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुआ और बाद में मनः पर्यव - ज्ञान भी प्राप्त हो गया । पुण्डरीकसूरि शासनदीपक बने । जैसे सूर्य अपने प्रकाश से कमलों को विकसित करता है वैसे ही उन्होंने अपने उपदेश रूपी किरणों के तेज से भव्य प्राणियों की महामोह रूपी निद्रा को उड़ा दिया और उन्हें जाग्रत कर दिया । लोगों के उपकार को ध्यान में रखकर ही उन्होंने एक देश से दूसरे देश में विहार किया, अपनी साधुचर्या में स्थिर रहे, निरतिचार चारित्र का पालन किया और अनेक गुरण-विभूषित शिष्य समुदाय को संगठित किया । उन्होंने दान, शील, तप और भाव रूपी धर्म के चारों पायों का जीवन में क्रमश: पालन किया । जीवन के प्रथम भाग में त्याग किया, दूसरे भाग में शील (ब्रह्मचर्य) का पालन किया, तीसरे भाग में उत्कृष्टतम तपस्या की और चौथे भाग में भाव-धर्म को स्वीकार किया । इस प्रकार धर्म- जीवन के चारों विभागों का आचरण कर, दिन की प्रकृति को धारण करने वाले इस जीवन को भव्य रूप से व्यतीत करते हुए जिनशासन को प्रकाशित किया । सूर्य रूप पुण्डरीकाचार्य ने जीवन के सन्ध्या काल में अपने जीवन का अन्त निकट जान कर संलेखना ( अन्तिम आराधना ) अंगीकार कर ली । [ ६२१-६२५]
* पृष्ठ ७६८
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