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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सदेव और सद्धर्म को प्रकट करने वाले सत्-शास्त्र इसी प्रकार के मोक्ष का प्रतिपादन करते हैं । जो शास्त्र दृष्ट (अनुमान, प्रमाण) से, इष्ट (आगम प्रमाण) से अबाधित हो और जो सर्व प्रमाणों से प्रतिष्ठित हो ऐसा एक ही शास्त्र सर्वत्र व्यापक है । ऐसे शास्त्र को ही व्यापक शास्त्र माना गया है । यह उस एक शास्त्र का भावार्थ कहा गया है जिसमें विशेष प्रकार के भाव व्याप्त हैं, उन्हें समझ कर अपनी इच्छानुसार विविध शब्दों में गूथा गया है । उसे वैष्णव, ब्राह्मण, माहेश्वर, बौद्ध या जैन किसी भी नाम से कहा जा सकता है। जब तक इसके मूल भाव का नाश न हो तब तक शब्दों के परिवर्तन से कोई अन्तर नहीं आता। विद्वान् पुरुष तो अर्थ देखकर ही प्रसन्न होते हैं, उसके आन्तरिक भावार्थ का विचार करते हैं, वे मात्र शब्द या नाम का आग्रह नहीं रखते । किसी गुणहीन मनुष्य को देव कहने मात्र से वह देव नहीं बन जाता, यदि देव शब्द से सम्बोधित करने मात्र से वह मनुष्य प्रसन्न होता है तो उसे मूर्ख ही समझना चाहिये । [८६४-८६६]
ऐसी अवस्था में भी यदि अन्य दार्शनिक अपने-अपने दर्शन को व्यापक कहते हैं तो कहने दीजिये, इसमें झगड़ने की अथवा विवाद करने की कोई आवश्यकता नहीं है । हे पुण्डरीक महामुने ! मोह के कारण जिनकी बुद्धि पर आवरण प्रा जाता है उनकी दृष्टि में विकार पैदा हो जाता है। वास्तव में तो दर्शन एक ही है, पर ऐसे विकारग्रस्त लोग ही दर्शन के अनेक भेद करते हैं, जो सचमुच झठा मोह है ।* जब प्राणी की बुद्धि पर से यह व्यामोह का पर्दा हट जाता है तब उसे सभी वस्तुएँ सद्बुद्धिगोचर होती हैं और जब उसे सद्दर्शन का भान हो जाता है तब उसमें थोड़ी सी भी भेद-बुद्धि नहीं रहती। शुद्ध दर्शन में भेद-बुद्धि को कोई स्थान नहीं है।
[६००-६०२] सभी वादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जो आत्मा मोहनीय कर्मरूपी मैल से युक्त हो वह मोक्ष-मार्ग को देख या जान नहीं सकती । जब आँख में मैल होता है तब स्पष्टतः वस्तु का दर्शन नहीं होता। इसी प्रकार जब आत्मा के कर्म-मल का नाश होता है तभी उसे यथास्थित मोक्षमार्ग दिखाई देता है। ऐसी आत्मा चाहे जहाँ रहे, उसे स्वतः ही मोक्ष-मार्ग दिखाई दे जाता है। ऐसी स्थिति में प्राणी परमार्थ को प्रकट करने वाले सद्दर्शन को स्पष्ट देखता है और अपने झूठे आग्रह को छोड़ देता है । मनीषियों ने इसी स्थिति को भटके हुए को मार्ग पर लाना कहा है । विद्वानों का मत है कि जो प्राणी मुर्ख हो, गुणदोष की परीक्षा न कर सकता हो, ज्ञान-शून्य हो, ऐसा प्राणी सिद्धान्त रूप विषम दुरूह ज्ञान को कैसे प्राप्त कर सकता है ? वस्तुतः मैं अच्छा तू खराब, मेरा दर्शन अच्छा तेरा खराब, यह सब बोलना/ मानना और ऐसी बातें करना तो स्पष्टत: मत्सर/द्वेष का खेल है।
[६०३-६०७]
* पृष्ठ ७६७
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