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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
इस प्रकार सर्वज्ञ, सवदर्शी, परमात्मा आदि विशेषणों से युक्त, शुद्ध बोध का धारक, अशरीरी होने पर भी अपनी अनन्त शक्ति के प्रभाव से संसार से मुक्त कराने वाला एक ही देव है । जो भाग्यवान प्राणी ऐसे परमात्मा को सम्यक् प्रकार से पहचानते हैं और भाव से उसको स्वीकार करते हैं, उनके मन में उसका सत्यस्वरूप सुदृढ़ हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसके सम्बन्ध में उनके मन में किसी प्रकार के वाद-विवाद या मत-भेद का कारण ही कैसे उत्पन्न हो सकता है ?
[८६४-८६५] ___ कुछ अल्पज्ञ लोग परमात्मा को राग-द्वेष से युक्त मानते हैं । ऐसे अल्पज्ञ लोगों को तत्त्व के जानकार महापुरुष करुणा-बुद्धि से बार-बार समझाते रहते हैं कि सर्वज्ञ देव राग-द्वेष रहित ही होते हैं । [८६६]
तात्त्विक दृष्टि से देव का स्वरूप तेरे समक्ष प्रस्तुत किया। ये देव प्रमाणों से सिद्ध हैं, अत: समस्त वादियों के मतानुसार भी एक ही हैं । संक्षेप में कहा जाय तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, रागद्वेषरहित और महामोह को नष्ट करने वाले देव एक ही हैं।
[८६७] धर्म एक है
परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो संसार में धर्म भी एक ही है । यह कल्याणपरम्परा का हेतु, स्वयं शुद्ध और शुद्ध गुरणों से परिपूर्ण है । ये शुद्ध गुण दस प्रकार के हैं। जैसे---क्षमा, मार्दव, शौच (पवित्रता) तप, संयम, मुक्ति, (लोभ त्याग) सत्य, ब्रह्मचर्य, सरलता और त्याग । पण्डित लोग इस दस लक्षण युक्त धर्म को पहचानते हैं
और इसे स्वर्ग तथा मोक्ष का दाता मानते हैं। वे इसकी शक्ति के सम्बन्ध में कभी वाद-विवाद नहीं करते । कुछ मूर्ख प्राणी धर्म की इससे विपरीत कल्पना करते हैं, किन्तु करुणार्द्र विद्वान् पुरुष उन्हें ऐसी विपरीत कल्पना करने से बार-बार टोकते हैं । प्रमारणों से सिद्ध होने वाला ऐसा धर्म भी एक ही है । हे पुण्डरीक ! इसका प्रतिपादन भी मैंने तेरे समक्ष कर दिया। [८६८-८७२] मोक्ष-मार्ग एक है
तत्त्व संज्ञा वाला मोक्षमार्ग भी परमार्थ से एक ही है और विद्वान् पुरुष उसे एकरूप ही पहचानते हैं । जैसे, कोई इसे सत्व, कोई लेश्याशुद्धि, कोई शक्ति और कोई इसे योगियों को प्राप्त करने योग्य परम वीर्य कहते हैं । इसमें जो भेद दिखाई देते हैं वे नाम मात्र के हैं, अर्थ भेद तो किञ्चित् मात्र भी नहीं है । आचरण में भी ध्वनि-भेद सूनाई पड़ता है, जैसे कोई अदृष्ट, कोई कर्म-संस्कार, कोई पुण्य-पाप, कोई शुभ-अशुभ, कोई धर्म-अधर्म और कोई इसे पाश कहते हैं । ये सब पृथक्-पृथक पर्याय मात्र हैं । एक ही अर्थ को बताने वाले सत्व, वीर्य आदि भिन्न-भिन्न शब्द हैं। इनकी हानि या वृद्धि क्रमश : संसार और मोक्ष का कारण होती है । पुण्य की हानि
और पाप की वृद्धि से संसार में सर्व प्रकार की विपत्तियाँ आती हैं और पुण्य की वृद्धि से सब प्रकार की विभूतियाँ प्राप्त होती हैं। [८७३-८७७]
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