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________________ ४१८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा । अतएव मात्र जैन शासन/ दर्शन ही वास्तव में संसार का नाश करने वाला है, अत: जो भी दार्शनिक जैन शासन के अन्तर्गत हैं और समग्र उपाधियों से रहित हैं वे बाह्य वेष से भले ही अपने दर्शन को मानते हों, पर वे संसार का उच्छेद करने वाले होते हैं। [८१२-८१४] संक्षेप में, जैसे सर्व रोगों की उत्पत्ति का कारण वात, पित्त और कफ है, जिससे इनका शमन हो और प्राणी निरोग हो वही औषधि संसार में उत्तम मानी जाती है वैसे ही कभी-कभी ऊंट वैद्य द्वारा दी हुई औषधि भी परमार्थत: 'घुरणाक्षर न्याय' से सवैद्य-सम्मत औषधि के समान आरोग्यदायक हो जाती है। अत: जो-जो अनुष्ठान राग, द्वेष, मोहरूपी व्याधियों को नष्ट करने वाले और कर्ममल से परिपूर्ण आत्माओं को निर्मल करने वाले हैं, वे जैन शासन में हों, अन्य दर्शनों में हों, या कहीं भी हों, उन्हें सर्वज्ञ-दर्शन-सम्मत और अनुकूल ही समझना चाहिये। [८१५-८१८] यह बात संदेहरहित है कि जो अनुष्ठान चित्त को मलिन करने वाले हों और मोक्ष में रुकावट पैदा करने वाले हों वे चाहे जैन मुनियों या श्रावकों (गृहस्थों) द्वारा प्राचरित हों, तब भी वे जैन-मत से बाहर हैं । तब अन्य दर्शन वाले जो चित्त को मलिन करने वाले और बाहर से दोष युक्त दिखाई देने वाले प्रारम्भादि अनुष्ठान करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या ? अतएव जो प्राणी भाव पूर्वक विशुद्ध भावनारूढ होकर संसारसमुद्र को पार कर लेते हैं, उसमें बाह्य वेष की चिन्ता का कोई कारण नहीं है । वस्तुत: विकास-क्रम में मात्र बाह्य वेष को कोई स्थान नहीं है। [८१६-८२१] माध्यस्थभाव तेरी अन्य शंका यह थी कि सभी को मोक्ष की साधना करनी है, पर राब के ध्येय भिन्न-भिन्न हैं, इसमें क्या परमार्थ है ? इसमें निहित परमार्थ भी लक्ष्य पूर्वक समझ : दुष्ट वैचारिक तरंगों के परिणामस्वरूप प्रात्मा पाप का बन्ध करती है और प्रशस्त शुभ विचारों से पुण्य का बन्ध करती है । जब आत्मा दोनों के प्रति उदासीन हो जाती है, अर्थात् बुरे के प्रति द्वष और अच्छे के प्रति राग न करे तब वह पाप और पुण्य से भी अलग हो जाती है। जीव का यह स्वभाव है कि वह कभी अच्छे विचार और कभी बुरे विचार करता रहता है, जिससे पुण्य और पाप का बन्ध होता रहता है और बाद में उसके फल भोगने पड़ते हैं । जो इन दोनों से मध्यस्थ रहता है, उदासीन वृत्ति धारण करता है वह पाप और पुण्य से मुक्त रहता है। [८२२-८२४] जैसे, अपथ्य भोजन से शरीर में व्याधियाँ पैदा हो जाती हैं वैसे ही भ्रम पैदा करने वाले और मन को मलिन करने वाले हिंसामय अनुष्ठानों से मन में बुरे विचारों की तरंगे उठती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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