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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा अन्य बृहस्पति, सूत आदि दुष्ट नास्तिकों ने जिनशास्त्र से विपरीत कल्पनायें कर बड़ी-बड़ी बातें कीं और अपनी वाचालता से संसार में प्रसिद्ध हुए । कहावत भी है कि 'संसार में चोर भी अपनी प्रगल्भता ( वाक्पटुता ) से प्रसिद्ध हो जाते हैं ।' [७८८-७८९] ४१६ भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न रुचि वाले होते हैं, अतः अपनी-अपनी इच्छानुसार कुछ लोगों को * ग्रास्तिक अच्छे लगते हैं तो कुछ को नास्तिक और कुछ को सर्वज्ञ एवं उनके शिष्य । [७९० ] पुनः वैशेषिक सूत्रकार करणभक्ष (करणाद) मुनि और न्यायसूत्र के प्रणेता अक्षपाद (गौतम) मुनि प्रादि धर्मगुरुत्रों ने अपने शास्त्र बनाये और उन्हें अपने शिष्यों को सिखाया । उन्होंने अपना तीर्थ / धर्म प्रवर्तित किया और अपने शिष्यों के लिए अनुष्ठानों की भी एक लम्बी श्रृंखला बनायी । इस प्रकार भिन्न-भिन्न वैद्यशालायें खड़ी हो गईं । [ ७६१-७९२ ] रोगी ऐसा होने पर भी जिन कर्म - रोगियों की चिकित्सा सर्वज्ञ की सद्वैद्यशाला में होती थी वे तो सचमुच भाग्यशाली थे क्योंकि वे निश्चित रूप से नीरोग हो जाते थे । [७६३] जो प्राणी आस्तिक धर्म गुरुयों से उपचार कराने गये उनकी कर्म-व्याधि कुछ-कुछ कम हुई और कभी-कभी कोई-कोई रोग से पूर्णतया मुक्त भी हुआ । इस लाभ का कारण सर्वज्ञ सद्वैद्य के वचन थे, क्योंकि आस्तिकों ने भी सर्वज्ञ - भाषित कुछ वचन अपने शास्त्रों में गूंथ दिये थे । अथवा उनमें से किसी-किसी को कभी जातिस्मरण आदि ज्ञान भी हो जाता था जिससे सर्वज्ञ के वचन उसके हृदय में स्थापित हो जाते थे । यही कारण है कि उनके कर्मरोग क्षीण हो जाते थे या कर्मरोगों से मुक्त हो जाते थे । जिस प्रकार वैद्य शरीर में रहे हुए वात, पित्त और कफ को पहचान कर रोगों की चिकित्सा करते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ महावैद्य राग, द्व ेप और महामोह रूपी त्रिदोषों को पहचान कर फिर चिकित्सा करते हैं । इसीलिये सर्वज्ञशाला और उनके शास्त्रों से बाहर रहने वालों के यहाँ कर्मरोग की चिकित्सा कदापि नहीं हो सकती । [७६७-७६८] जो लोग स्वयं नास्तिक हैं और जैन शास्त्र के पूर्णतया विपरीत हैं वे दुष्ट तो निश्चित रूप से संसार को बढ़ाने वाले ही हैं । तदपि अर्थ और काम में आसक्त गुरुकर्मी लोगों को जिनकी दृष्टि वर्तमान पर ही अधिक स्थिर रहती है, ये नास्तिक बहुत अच्छे लगते हैं । [ ७६६-८०० ] * पृष्ठ ७६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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