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________________ ४१४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा वैद्य बने बहुत से धूर्त भी वैद्यक का धन्धा करने लगे थे। वहाँ के पुण्यहीन निवासियों के दुर्भाग्य से ऐसे ऊंट वैद्य अधिक प्रसिद्ध हो रहे थे । ये नये वैद्य अपने पापको पण्डित मानते थे । इन्होंने भी अपनी-अपनी नवीन संहिता बना डाली । इनमें से कुछ ने दूसरों से यथार्थ वैद्य के वचन सुनकर उनमें से कुछ को अपनी संहिता में भी जोड़ दिया। कुछ ने अपने पाण्डित्य के घमण्ड में सच्चे वैद्य के कथन से विपरीत वचनों से ही अपनी संहिता बनाई । नगर के रुग्ण नागरिक भिन्न-भिन्न रुचि वाले थे। किसी को एक वैद्य अच्छा लगता तो किसी को दूसरा । इस प्रकार भिन्न-भिन्न लोग भिन्नभिन्न वैद्यों को पसंद करते । यो प्रायः सभी ऊंट वैद्य प्रसिद्ध हो गये और उन्होंने अपनी-अपनी वैद्यक शिक्षा की पाठशालायें खोल ली तथा स्वकीय शिष्यों को अपनीअपनी संहितानुसार वैद्यक सिखाने लगे। सिखाते समय ये ऊंट वैद्य अपने शिष्यों को इतना अधिक व्याख्यान पिलाने लगे कि वे संसार में महावैद्य के रूप में प्रसिद्ध हो गये। धीरे धीरे लोग वास्तविक मूल वैद्य को भूलने लगे और उनकी उपेक्षा तथा अनादर करने लगे। सच्चा वैद्य रोगों का निदान कर जो औषधि बताता, उसका विधि पूर्वक सेवन करने से लोग निरोग हो जाते थे। सच्चे वैद्य के जीवन काल में जैसे उसने कई लोगों को रोगमुक्त किया था वैसे ही उसकी सुवैद्यशाला में सीखे हुए उसके शिष्यों ने भी उसकी संहितानुसार उपचार कर अनेक लोगों को रोगमुक्त किया था । अतएव यह चिकित्सालय सब लोगों के लिये रोगों का उच्छेद करने वाला बना । कुछ रोगी जो इन नये ऊंट वैद्यों के पास उपचार कराने गये, वे बेचारे अनेक व्याधियों और पीड़ाओं से घिरते गये। उन वैद्यों के जीवनकाल में जैसे उनका चिकित्सालय लोगों का अपकार करता था वैसे ही उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी संहिता और उनके शिष्य लोगों को क्षति/ हानि पहुँचा रहे थे। [७६६-७६७] इन नये वैद्यों की वैद्यशालाओं में भी कभी-कभी रोगियों के रोग कम हो जाते थे या दैवयोग से कदाचित् एकदम मिट जाते थे । इसका कारण यह था कि इन्होंने भी सच्चे वैद्य के कुछ वचन अपनी संहिता में जोड़े थे और कभी-कभी उसका अनुसरण करते थे । जब-जब ये ऊंट वैद्य सच्चे वैद्य के वचनानुसार उपचार करते थे तब-तब रोग कम हो जाता था या कभी दैवयोग से रोगी स्वस्थ भी हो जाता था। [७६८-७७०] कुछ दुर्बुद्धि वाले वैद्य अपनी दुष्ट बुद्धि से ही कार्य करते रहे और सच्चे वैद्य के वचन नहीं समझ सके, वे तो नितान्तरूप से व्याधि को बढ़ाने वाले ही बने ।* [७७१] • पृष्ठ ७६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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