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________________ ४१२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अन्य कहते हैं कि, ॐ परम अक्षर (प्रणवाक्षर) के ऊपर और नीचे लेप की हुई अग्निशिखा के चलने पर उसकी जो मात्रा होती है, वही अमृत-कला कहलाती है। ____ अन्य लोगों का मत है कि, नाक के अग्रभाग पर अथवा दोनों भौंहों के मध्य तुषार (बर्फ) या मोती के हार जैसा स्वच्छ बिन्दु दो प्रकार का होता है, चल और स्थिर । इस बिन्दु को ध्यान का विषय कहा जाता है । जब यह बिन्दु आग्नेय मण्डप (कोण) में मिलता है तब रक्तवर्णी, पूर्व में पीतवर्णी, वायव्य कोण में कृष्णवर्णी, पश्चिम दिशा में श्वेतवर्णी होता है। जब चित्त निर्मल हो तो यह पीला होता है, क्रोधित हो तो लाल होता है, शत्रु-नाश के समय काला होता है और जब श्वेत होता है तब पुष्टिकारक होता है।। अन्य कहते हैं कि, मुमुक्षु (मोक्ष प्राप्ति की इच्छा वालों) को नाड़ी-मार्ग सिद्ध करना चाहिये। उन्हें जानना चाहिये कि ईड़ा और पिंगला नाड़ियों का संचालन किस प्रकार होता है और उनका क्या कार्य होता है। नाड़ियों का संचार दायें या बायें किस प्रकार होता है, इसका वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिये और उस ज्ञान के द्वारा काल और बल का बाह्य ज्ञान प्राप्त कर, पद्मासन से बैठकर उच्च घंटानाद सुनना चाहिये। कुछ प्रकार के उच्चारण को ही परम शान्तिदायक मानते हैं। नाभि में से सरल प्राण वायु निकलती है जो कमल के तन्तु जैसा आकार धारण कर मन्थर गति से सिर के अन्तिम भाग तक जाती है। वह मस्तक में तालु स्थित ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकलती है। कुछ लोग उस प्राणवायु के संचार पर ध्यान केन्द्रित करने और उसे मन्द गति से संचालित करने का वर्णन करते हैं । कुछ लोग कहते हैं कि, सूर्य-मण्डल-स्थित आदिपुरुष अथवा हृदय-कमलस्थित मूलपुरुष का ध्यान करना चाहिये और उसे ही अपने ध्येय रूप में पहचानना चाहिये। कुछ बुद्धिमान, हृदय-आकाश में स्थित सैकड़ों किरणों से जाज्वल्यमान अत्यन्त सुशोभित नित्य परमपुरुष का ध्यान करने और उसे ही अपना ध्येय बनाने का परामर्श देते हैं। कुछ, आकाश को ही ध्येय बनाने को कहते हैं। कुछ, चल-अचल सम्पूर्ण विश्व को ध्येय रूप से पहचानने को कहते हैं। कुछ, आत्मा में रहे हुए चित्त को ध्येय रूप से पहचानने को कहते हैं । कुछ शाश्वत ब्रह्म को ही ध्येय रूप से जानने की सलाह देते हैं। [७५७] हे महात्मन् ! जैसे आपने ध्यान-योग को ही द्वादशांगी का सार बताया है वैसे ही भिन्न-भिन्न तीथिक धर्मगुरुओं ने भी भिन्न-भिन्न पद्धति से योग को सार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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