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________________ ४०६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा और जागृत करने हेतु अन्तिम पाराधना कराने लगे। उसी समय उनका आयुष्य पूरा हुआ और उनकी प्रात्मा इस शरीर रूपी पिंजरे को छोड़कर सर्वार्थसिद्धि विमान में पहुँच गई, जहाँ वे तेंतीस सागरोपम की आयुष्य वाले महान ऋद्धि वाले देवता बने। दूसरे दिन इसका पता लगने पर चतुर्विध श्रमण संघ वहाँ एकत्रित हुआ । राजर्षि अनुसुन्दर के मृत शरीर का विधिपूर्वक संस्कार कर परित्याग किया और मनुष्यों तथा देवताओं ने उनकी पूजा की। सुललिता का शोक-निवारण __ सुललिता को एक ही दिन में अनुसुन्दर पर अत्यधिक राग हो गया था। विशुद्ध धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले इस महापुरुष के गुण अभी उसके हृदय में स्थिर हो रहे थे और पूर्वकाल के दीर्घ अभ्यास के स्नेह-तन्तुओं का जाल अभी टूटा नहीं था। उनके उपकार के बोझ से दबी हुई और संसार से अभी-अभी विरक्त हुई सुललिता के मन में अनुसुन्दर की अचानक मृत्यु के समाचार से * कुछ खेद हुआ और उसका मन शोकाक्रान्त हो गया। [६६६-६७१] यह देखकर सूललिता को अधिक स्थिर करने और उसके शोक को दूर करने के लिये समन्तभद्राचार्य ने सभी के समक्ष सुललिता से कहा : आर्ये! जिस नरपुंगव महापुरुष ने एक ही दिन में अपना कार्य सिद्ध कर लिया, साध्य के मार्ग पर कूच कर कृतकृत्य हो गया, उस महात्मा के लिये शोक करना उचित नहीं है । उसने तो असाध्य कार्य सिद्ध कर लिया। यदि वह अधिक पाप कर्म के बोझ से संसार-समुद्र में डूब गया होता और यहाँ से नरक की तरफ प्रयाण किया होता तब तो उसके लिये शोक करना योग्य समझा जा सकता था, पर जो प्राणी विशुद्ध सदधर्म को प्राप्त कर, अपने पाप रूपी मैल को धोकर सर्वार्थसिद्धि विमान को जाये, उसके लिये तो शोक मनाना किभी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। जिस प्राणी को संयम धर्म अति दुर्लभ हो और जो दु:ख के बोझ से संसार में भटक रहा हो, उत्तम व्यक्ति ऐसे प्राणी के लिये ही शोक करते हैं। जो प्राणी संयमी होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उनके लिये विवेकीजन तनिक भी शोक नहीं करते । संसारचक्र में रहते हुए भी ऐसे प्राणी जहाँ भी रहें वहाँ उन्हें आनन्द और आन्तरिक सुख ही प्राप्त होता है, अतः उनके विषय में शोक करना उचित नहीं है। जिस प्राणी ने परलोक में सुख देने वाले धर्म का सम्यक् प्रकार से प्राचरण न किया हो, वह मृत्यु का सामना होने पर भय खाता है; पर जिस प्राणी ने सद्धर्म * पृष्ठ ७५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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