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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
पुत्रि ! तुझे बहुत दिनों से नहीं देखा, अतः तुझे देखने की इच्छा से हम राज्य छोड़कर यहाँ आये हैं । हे वत्से ! तेरे पिता को तो तेरे बिना चैन ही नहीं पड़ता और मेरा हृदय तो तेरे स्नेह को लेकर निरन्तर दग्ध होता रहता है। तेरा हृदय कितना कठोर और निर्दय है कि तूने इतने दिनों से अपने स्वास्थ्य और कुशल-क्षेम के सम्बन्ध में किसी के साथ समाचार भी नहीं भिजवाये । [६५१-६५३] सुललिता का दीक्षा के लिये उद्यम
सुललिता-माताजी! अधिक कहने की क्या आवश्यकता है ? आपका मुझ पर कितना स्नेह और सद्भाव है यह तो अभी प्रकट हो जायेगा । आपकी आज्ञा प्राप्त कर मैं अभी पारमेश्वरी जैनमत की प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ। यह दीक्षा अद्भुत लाभ प्राप्त कराने वाली और संसार-सागर से पार उतारने वाली है । इस समय न केवल आप मुझे दीक्षा लेने से रोकेंगी, अपितु आप दोनों भी मेरे साथ निर्विकल्प होकर भागवती दीक्षा ग्रहण करेंगे तो आपका मुझ पर जो स्नेह, सद्भाव है वह सर्व लोगों के समक्ष प्रकट हो जायेगा । अपने सच्चे प्रेम को प्रकट करने का यह अपूर्व अवसर है और मुझे विश्वास है कि आप अपने स्नेह को अवश्य प्रकट करेंगे । [६५४-६५७] मगधसेन और सुमंगला की उच्च भावना
भोली सूललिता के मुख से ऐसा अलौकिक उत्तर सुनकर राजा मगधसेन अति हर्षित हुए एवं विचारमग्न हो गये । पर, तुरन्त निश्चय कर सुमंगला से बोले - देवि ! पुत्री ने तो हमारा मुह बन्द कर दिया है, हमें प्रारम्भ में ही निरुत्तर कर दिया है । यह तो बहुत भोली थी, पर लगता है अब यह परमार्थ को समझने लगी है, अन्यथा ऐसा समयानुसार वचनविन्यास (वाणी) कैसे करती ? मेरा मानना है कि इसका वर्तमान निर्णय अयोग्य नहीं है । इसने ठीक ही कहा है, हमें भी इसके साथ दीक्षा ले लेनी चाहिये । इसी प्रकार इसके प्रति हमारा वास्तविक स्नेह प्रकट हो सकेगा । वैसे भी हम तो अब उम्र के अन्तिम छोर पर पहुँच गये हैं।
सुमंगला—जैसी आपकी आज्ञा ।
माता-पिता की बात सुनकर सुललिता अत्यन्त हर्षित हुई । माता-पिता का आभार प्रदर्शन करती हुई उसने उनके चरण छुए। फिर उनको संक्षेप में अनुसुन्दर चक्रवर्ती आदि का वृत्तांत सुनाया और यह बताया कि उसकी दीक्षा लेने की इच्छा कैसे हई । * सुनकर माता-पिता अत्यधिक सन्तुष्ट हुए और उनके मन में भावदीक्षा लेने के विचार उत्पन्न हुए। वे दोनों प्राचार्य के पास आये और अपनी दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । आचार्य ने भी उनके विचारों का अनुमोदन किया।
* पृष्ठ ७५३
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