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________________ ३६२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा भावराज्य को प्राप्त कर लिया था, क्या वह भी भूल गये ? निर्मलसूरि ने आपको बहुत उपदेश दिया था, सम्पूर्ण अनन्त भवचक्र समझाया था और कार्य-कारण सम्बन्ध भी बताया था, क्या वह भी याद नहीं रहा ? - अरे भाई ! आपको ग्रेवेयक आदि में जो प्रचुरता से सुख प्राप्त हुए हैं, वह सब सदागम की शरण का ही प्रभाव था, क्या वह भी भूल गये ? अरे राजन् ! अब अधिक मोहित मत बनो, अभी भी समझो। तुम पर करुणा कर तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिये यथार्थ बात समझाने के लिये ही मैं तुम्हारे पास आई हूँ [५५५-५५६] ___ महाभद्रा साध्वी जब मुझे उपयुक्त बोध दे रही थीं तभी सद्बोध मंत्री सम्यग्दर्शन के साथ मेरे पास आने का प्रयत्न करने लगे। पर, उनका मार्ग अन्तरंग शत्रुओं से अवरुद्ध होने से तथा पूरा मार्ग अन्धकार से प्राच्छन्न होने से वे मेरे पास नहीं आ सके । उसी समय भगवती महाभद्रा के वचन रूपी सूर्य की किरणों से प्रेरित जीववीर्य नामक श्रेष्ठ सिंहासन सूर्यकान्ति के समान प्रकाशित हो गया । सिंहासन के प्रकाशित होते ही तमस् रूपी अन्धकार नष्ट हो गया और मेरी चित्तवृत्ति अटवी में दोनों सेनाओं का भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया । सद्बोधमंत्री और सम्यग्दर्शन सेनापति ने जैसे ही प्रकाश देखा वे युद्ध-तत्पर हो गये और उन्हें घेर कर रखने वाली शत्रु सेना को अपने सुसज्जित बल से एक ही हमले झटके में मार भगाया तथा वे दोनों मेरे पास आ पहुँचे । [५६०-५६४] उपर्युक्त घटना अप्रत्याशित रूप से अत्यल्प समय में ही घटित हई। सद्बोध और सम्यग्दर्शन के मेरे पास आते ही मेरे मन में तर्क-वितर्क उठने लगे और महाभद्रा के कथन पर मैं गहराई से विचार करने लगा कि 'भगवती महाभद्रा क्या कह रही हैं ?' ऊहापोह करते-करते मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया, जिससे गुणधारण के समय से सभी अवस्थायें स्मृति में आ गईं। सद्बोध मंत्री ने यद्यपि युद्ध जीत लिया था, फिर भी अन्दर ही अन्दर युद्ध चालू ही रखा। मेरे मन के उच्च प्रकार के अध्यवसाय बढ़ते जा रहे थे, तभी सद्बोध के मित्र अवधिज्ञान ने अपने शत्रु अवधिज्ञानावरण को जीत लिया और मेरे पास आगया । इसके बल से मैं असंख्यात द्वीप-समुद्रों को और संसार के भवप्रपंच को देखने लगा। सिंहाचार्य के भव में मैंने जो पूर्वो का ज्ञानाभ्यास किया था और बाद में जिसे मैं भूल गया था वह सब स्मृति पटल पर आ गया। ज्ञान का आवरण हटते ही ज्ञान का अतिशय भी जाग्रत हो गया । निर्मलसूरि ने पहले मुझे जो आत्म संसार-विस्तार बताया था वह मेरी आँखों के सामने तैरने लगा । इस पर विचार करते-करते मुझे अपने असंख्य भव-परिभ्रमण का वृत्तान्त चलचित्र के समान दृष्टिपथ में आने लगा । इन सब को दृष्टि में रखते हुए तथा मुझे प्रतिबोधित करने के कारणों से प्रेरित होकर मुललिता को सत्य दर्शन कराने और पुण्डरीक को वस्तुज्ञान कराने के लिये मुझे * पृष्ठ ७४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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