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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
इस प्रकार विघ्नरूपी विनायक को शान्त करने वाले परमेष्ठि को नमस्कार, करने के पश्चात् मैं विवक्षित ग्रन्थ की रचना करता हूँ। [१०]
कर्तव्य-सूचन
भव्य जीव अपने शुभ कर्मों से अतिदुर्लभ इस मनुष्य जीवन और श्रेष्ठ कुल आदि अनकल सामग्री को प्राप्त कर सभी हेय पदार्थों का त्याग करें, करने योग्य कार्यों को करें, श्लाघनीय वस्तु की प्रशंसा करें और श्रवण करने योग्य वचनों को सुनें। प्रात्म-हितेच्छु, जो भी कार्य मन को मलिन बनाने वाले और मोक्ष से हटाने वाले हैं उनका मन-वचन-काया से त्याग करें। मनीषियों को सर्वदा ऐसे कार्य करने चाहिये जिससे मन मुक्ताहार, बर्फ, गोदुग्ध, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत एवं स्वच्छ हो जाय। विशुद्ध अन्तर्ह दय से सर्वज्ञ, तत्प्रणीत धर्म और उसका आचरण करने वालों की सर्वदा श्लाघा करनी चाहिये । समस्त दोषों का नाश करने के लिए श्रद्धा से विशुद्ध बुद्धिपूर्वक सर्वज्ञ-भाषित सार-गभित वचनों को भावपूर्वक सुनना चाहिये । सर्वज्ञ-भाषित श्रोतव्य वाणी जगत् की हितकारिणी है ऐसा चिन्तन कर यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। तदनुसार महामोहादि (अन्तरंग शत्रुओं) का नाश करने वाली और संसार के प्रपञ्चमय विस्तार को बताने वाली कथा मैं कहूँगा। [११-१८]
सर्वज्ञ-वाणी
सर्वज्ञ-भाषित वाणी पाँचों प्रास्रवों (हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य, परिग्रह), पाँचों इन्द्रियों, महामोह से समन्वित चारों कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ), मिथ्यात्व, राग और द्वषादि रूप अन्तरंग-शत्रुओं की सेना के दोषों का उद्घाटन करने वाली है। अर्थात ये आन्तरिक-शत्रु प्राणी को संसार में कितना भटकाते हैं इसका स्वरूप सर्वज्ञ-वाणी स्पष्टतः बताती है। इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सन्तोष, प्रशम, तप, संयम और सत्य आदि करोड़ों सैनिकों से सुसज्जित प्रात्मबल की आन्तरिक सेना भी है। जिसके गुणों की गोरव गाथा भी जिनेन्द्र-वाणी में पद-पद पर प्रकट की गई है। एकेन्द्रिय आदि भेदों से अनन्त दुःखरूपी भव-प्रपञ्च के स्वरूप का वर्णन भी जिन वाणी में प्राप्त होता है। अतएव उसी सर्वज्ञ वाणी को आधार मानकर, मेरे जैसे सामान्य प्राणी द्वारा कहे गये वचनों को भी जैनेन्द्र-सिद्धान्त का निर्भर समझे। [१६-२४]
के पृष्ठ २ 1. अनुकूल सामग्रियाँ अनेक प्रकार की हैं :-आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, नीरोग शरीर, इन्द्रिय सुख,
बुद्धि, ग्रहण शक्ति, सद्गुरु का योग तत्वश्रवण की इच्छा, आलस आदि काठियों का नाग इत्यादि ।
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