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________________ प्रस्ताव : गौरव से पुनः अधःपतन मेरा कुल, तप, लक्ष्मी, तेज महान है और मेरी प्रज्ञा भी महान है । वास्तव में महान व्यक्तियों का तो सब कुछ महान ही होता है । [४४१-४४७ ] श्रधःपतन की संकलना अहंकारपूर्वक मेरे मन में विकल्प उठ रहे थे, तरंगें उछल रही थीं और मन के घोड़ े दौड़ लगा रहे थे । यह देखकर शैलराज पुलकित हुआ और उसने अपना अनन्तानुबन्धी स्वरूप प्रकट किया । ३७३ जहाँ शैलराज होता है वहाँ मिथ्यादर्शन तो इसके साथ रहता ही है प्रौर ज्ञानसंवररण को तो शैलराज के साथ विलास - क्रीडा करना बहुत ही अच्छा लगता है । ये तीनों मेरे पास आये और मेरे से घनिष्ठ सम्पर्क बढ़ाया । अन्त में मैं इनके वशीभूत हु, मेरा मन मलिन हुआ और शास्त्र के अन्दर का अर्थ/रहस्य जानते हुए भी अज्ञानी जैसा हो गया । मैं स्वयं शास्त्र पढ़ता था, दूसरों को वाचना देता था, उन पर व्याख्यान देता था, तथापि मिथ्यादर्शन आदि के चक्कर में इनका गूढार्थ बराबर नहीं समझ पाता था । परिरणाम स्वरूप मैं ऊपर-ऊपर के साढे चार पूर्व पूर्णरूप से भूल ही गया, शेष पूर्वी का ज्ञान भूला नहीं था । [ ४४८ - ४५२] प्रमत्तता के प्रवाह में हे पापरहित भद्र े ! मेरे शत्रुओं ने इस समय मेरी चित्तवृत्ति में स्थित प्रमत्तता नदी में प्रयत्नपूर्वक बाद पैदा कर दी जिससे पूर्वोक्त तीनों गौरव संज्ञक पुरुष अपनी-अपनी शक्ति से विशेष उछल-कूद मचाने लगे अहा ! मेरा कितना विशाल शिष्य समुदाय है ! कितने सुन्दर वस्त्र एवं* पात्रों की प्राप्ति है ! देव, दानव, मानव मेरी पूजा करते हैं । प्रणिमा ( सूक्ष्म रूप बनाने की ) श्रादि विभूतियाँ मेरे पास हैं । मैं इस प्रकार के अभिमान में और अधिक सिद्धियाँ प्राप्त करने की कामना करता रहा । (ऋद्धि गौरव) 1 मुझे जो-जो रसवाले आस्वाद्य पदार्थ मिलते थे, उनके प्रति मनमें आसक्ति पैदा हो गई और उनकी प्राप्ति के प्रति प्रति लोलुपता उत्पन्न हो गई । रस वाले पदार्थ न मिलने पर मैं लोगों से उनकी मांग भी करने लगा, जो साधुधर्म के विरुद्ध था । ( रस गौरव) कोमल शय्या, आसन, सुन्दर व सूक्ष्म रेशमी वस्त्र, नये-नये खाद्य पदार्थ मिलने पर मेरे शरीर को सुख और संतोष मिलता । इन वस्तुओं की प्राप्ति के प्रति भी मेरा लोलुपता बढ़ती गई । (साता गौरव ) इन तीनों गौरवों के वशीभूत होकर मैंने उग्र विहार करना छोड़ दिया और शिथिलाचारी बन गया। फिर आर्त्ताशय ने मेरे चित्त की शांति का हरण कर लिया और मैं दुष्ट संकल्प करने लगा । साधुवेष में होने से रौद्राभिसन्धि यद्यपि मुझे * पृष्ठ ७३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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