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६. कार्य-कारण- श्रृंखला
पुण्योदय के कार्य
स्वप्नों के विषय में मेरे मन में उठे संदेह का निराकरण होने से मैं उत्साहित हुआ और मैंने इस पूर्व अवसर का यथाशक्य लाभ उठाने के लिये प्राचार्यश्री से कुछ अन्य प्रश्न पूछने का निश्चय किया । मैंने ( गुणधारण) सविनय पूछा
गुरुदेव ! मदनमंजरी की प्राप्ति के बाद भी मुझे जो निरुपम सुख की प्राप्ति हुई, क्या उसे भी कर्मपरिणाम आदि चारों महापुरुषों की प्रेरणा से पुण्योदय ने ही उपलब्ध करवाई है ?
श्राचार्य - राजन् ! वह सब पुण्योदय ने ही किया है। यही नहीं, पहले भी उसने तुझे कई बार अनेक प्रकार से सुख प्राप्त करवाये हैं । नन्दीवर्धन के भध में कनकमंजरी से सम्बन्ध, रिपुदारण के भव में नरसुन्दरी से सम्बन्ध, वामदेव के भव
विमलकुमार जैसे सद्गुणी मित्र की प्राप्ति, घनशेखर के भव में अनेक प्रकार के मर्घ्य रत्नों की प्राप्ति, घनवाहन के भव में कलंकरहित प्रकलंक जैसे मित्र से निश्छल गाढ स्नेह आदि सभी सुख इसी ने प्राप्त करवाये हैं । इसने तुझे अनेक बार राज्य प्राप्त करवाया और सभी स्थानों पर अनेक प्रकार की सुख सुविधायें प्राप्त करवाई | पर, दु:ख है कि तूने कभी भी न तो इस पुण्योदय मित्र से परिचय ही किया और न कभी उसकी शक्ति को ही पहिचाना। इसके विपरीत सर्व दोषों के केन्द्रस्थान हिंसा, वैश्वानर, मृषावाद, शैलराज, स्तेय, बहुलिका, मैथुन, सागर, परिग्रह और महामोह आदि का पक्ष लिया । बिना पुण्योदय को पहचाने तूने अपने होने वाले लाभों की प्राप्ति इन दारुण दोषों के समूह हिंसा आदि से हुए ऐसा माना । हितेच्छु को न पहचान कर शत्रुओं को मित्र माना ।
गुरणधारण - भगवन् ! जब मित्र पुण्योदय मुझे पहले भी सुख परम्परा प्रदान करने का हेतु रहा है, तब बीच-बीच में इतने दुःख मुझे क्यों हुए ? अनन्त काल तक मुझे क्यों यहाँ से वहाँ भटकना पड़ा ?
आचार्य -- राजन् ! तेरा प्रश्न बहुत विशाल है । यदि तुझे इसका स्पष्टीकरण जानना ही है तो मुझे प्रारम्भ से ही सब कुछ बताना पड़ेगा जिससे कि तेरे समस्त संदेह दूर हों ।
गुरगधारण- भगवन् ! मुझ पर कृपाकर सब कुछ विस्तार से समझाइये |
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