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________________ प्रस्ताव ८ : गुणधारण-मदनमंजरी-विवाह ३२६ कुमार ! मेरी पुत्री दुष्कर रुचिवाली होने से साधारणतः किसी को पसंद ही नहीं करती। अभी उसके प्राण कण्ठ तक आ गये हैं । कृपया उठकर चलिये, उसे देखिये और संभालिये। [७७] मेरे और कुलन्धर के सामने इस प्रकार अपनी प्राप-बीती सुनाकर मदनमंजरी की माता कामलता विद्याधरी चुप हो गई। ३. गुणधाररा-मदनमंजरी-विवाह दर्शन से रसानुभूति __ महारानी कामलता की आपबीती पूरी होने पर मैंने अपने मित्र कुलन्धर की ओर देखा । उसने कहा-भाई कुमार ! मैंने भी सब बात सुनी है, चलो, इसमें क्या आपत्ति है ? पश्चात् हम दोनों वहाँ से उठे और सब मिल कर वहाँ आये जहाँ मदनमंजरी थी । कामलता ने मदनमंजरी का जैसा वर्णन किया था वैसी ही स्थिति उसकी हो रही थी। उसके दर्शन कर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं सुखसागर में डुबकियाँ लगा रहा हूँ, रति-रसपूर्ण समुद्र में उतर गया हूँ, प्रानन्दानुभूति में डूब गया हूँ, मानो मेरे सर्व मनोरथ पूर्ण हो गये हों, मेरी सभी इन्द्रियाँ आनन्दित हो गई हों तथा समग्र महोत्सवों के समूह वहाँ एकत्रित हो गये हों ।* मुझे देखते ही मदनमंजरी भी 'अरे! यह तो सचमुच वही है' सोचकर हर्षित हो गई । 'बहुत लम्बे समय बाद दिखाई दिये' इस विचार से उत्कंठित हो गई (यद्यपि २४ घण्टे से अधिक नहीं बीते थे, पर विरही प्रेमियों के लिये तो यह भी बहुत लम्बा समय होता है) । पर, 'वे अभी यहाँ कैसे हो सकते हैं ऐसा तर्क करने लगी । 'कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रही है' इस विचार से खिन्न हो गई । 'अरे ! वे तो सचमुच वही हैं' इस निर्णय से उसका विश्वास जमा। 'इतना लम्बा विरह सहकर वह कैसे जीवित रह सकी' इस विचार से लज्जित हुई । 'अब ये मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं' इस विचार से उद्विग्न हो गई। पर, 'ये तो मेरे सामने ही देख रहे हैं' जान कर प्रमुदित हुई । मदनमंजरी को उस समय अनेक प्रकार के मिश्र रसों का अनुभव हुआ । उसका शरीर रोमांचित हो गया, पसीने से भीग गया, * पृष्ठ ६६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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