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________________ प्रस्ताव ८ : मदनमंजरी ३२१ प्राप्ति के लिये अनेक औषधियों का सेवन किया, ग्रहशान्ति करवाई, सैकड़ों मानताएँ मानी, निमितज्ञों से भविष्य पूछा, मंत्रज्ञों से जाप करवाये, तन्त्रज्ञों से यन्त्र बनवाकर हाथ में बाँधे, अनेक जड़ी बूटियें पी, अनेक टोटके किये, अवश्र तियाँ निकालवाईं, भविष्य पूछा, मादलिये पहने, प्रश्न पूछे, प्रशस्त स्वप्नों का अर्थ पूछा, योगिनियों की प्रार्थना की । संक्षेप में ऐसा कोई उपाय शेष न रहा जो सन्तति-प्राप्ति के लिये हमने न किया हो । अन्त में कुछ समय पश्चात् मेरी प्रौढावस्था में मुझे गर्भ रहा। महाराजा अत्यधिक प्रसन्न हुए। मदनमंजरी का जन्म योग्य समय पर मैंने एक पुत्री को जन्म दिया। उसके शरीर की कान्ति इतनी अधिक दीप्तिमान थी कि वह अपने तेज से चारों दिशाओं को प्रकाशित कर रही थी । इस सुसमाचार को जानकर राजा को अपार हर्ष हुआ। उसने खूब बधाईयाँ बाँटी। शुभ दिन में सगे-सम्बन्धियों को बुलाकर सन्मानित कर उनके समक्ष उसका नाम मदनमंजरी रखा । मदनमंजरी सुख में पल रही थी और वह सभी को अत्यन्त प्रिय थी। स्वयंवर मण्डप मेरे पति को नरसेन नामक योद्धा से अत्यन्त स्नेह था । उसके भी वल्लरी के समान कोमल पुत्री थी जिसका नाम लवलिका था। मदनमंजरी और लवलिका में परस्पर प्रगाढ प्रेम था। दोनों ने एक साथ सर्व कलाओं का अभ्यास किया। अनुक्रम से मदनमंजरी ने तरुणाई प्राप्त की। वह अत्यन्त रूपवती और अधिक पढ़ी-लिखी होने से ऐसा सोचकर कि 'उसके योग्य पति का मिलन कठिन है' वह पुरुषद्वषिरणी बन गई । जब लवलिका द्वारा उसके पुरुषों के प्रति ऐसे विचार मालूम हुए, तो मुझे हार्दिक खेद हुआ । जब मैंने महाराजा को यह बात बताई* तब वे भी चिन्ताग्रस्त हो गये कि, अब इस कन्या का विवाह कैसे होगा ? अन्त में महाराजा को एक बात सूझी। उन्होंने स्वयंवर मण्डप की रचना कर सभी विद्याधर राजाओं और राजकुमारों को निमंत्रित कर दिया। सभी विद्याधर राजा आने लगे। उनका योग्य सन्मान कर एक ऊँचे मञ्च पर सभी को अलग-अलग योग्य स्थानों पर बिठाया गया। स्वयंवर मण्डप के मध्य में महाराजा कनकोदर अपने परिवार के साथ बैठे। मदनमंजरी को सुन्दर वस्त्राभूषण, मेंहदी, चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों एवं पुष्पहारों से सजाकर उसकी सखी लवलिका के साथ हम सब ने स्वयंवर मण्डप में प्रवेश किया। देवाङ्गनाओं के सौन्दर्य का भी उपहास करने वाली मदनमंजरी के लावण्य को देखकर सभी विद्याधर राजाओं के चित्त उद्वलित हो गये और वे निनिमेष होकर एकटक उसे देखते हुए चित्रलिखित से स्तब्ध हो गये। मैंने मदनमंजरी को प्रत्येक * पृष्ठ ६६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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