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________________ १०] ये तीनों भाषाओं के अनुवाद भी प्राज अप्राप्त हैं । प्रस्तुत अनुवाद इस प्राचीनतम मौलिक उपन्यास का पूर्ण हिन्दी अनुवाद न होने से हिन्दीभाषी पाठक अद्यावधि इसके अध्ययन से वंचित रहे । यह गौरव का विषय है कि यह हिन्दी अनुवाद आज प्रकाशित हो रहा है । इसके प्रकाशन का सारा श्रेय वस्तुतः श्री देवेन्द्रराजजी मेहता, सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर के हिस्से में ही जाता है । इन्हीं की सतत प्रेरणा से यह अनुदित होकर प्रकाश में श्रा रहा है । अतः साहित्य जगत् की दृष्टि में वे धन्यवादार्ह हैं पूर्वकृत अनुवाद मूलानुसारी न होने से लगभग ४ वर्ष पूर्व श्री मेहताजी ने मुझ से अनुरोध किया था कि मैं इस अनुवाद का संशोधन एवं सम्पादन कर दूं । मेरी अनिच्छा होते हुए भी उनके प्रेम के वशीभूत होकर मैंने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया था । अनिच्छा का कारण था कि अनुवाद करना सरल है, किन्तु उसका संशोधन लेखक की शैली में ही करना अत्यन्त जटिल एवं प्रतीव दुष्कर कार्य है तथा कष्टसाध्य है । तथापि श्रम एवं समय-साध्य होने पर भी श्री मेहताजी की सतत प्रेरणा से मैंने निष्ठापूर्वक इसका संशोधन किया । मैंने प्रथम प्रस्ताव का अनुवाद स्वतन्त्र रूप से किया और शेष प्रस्तावों का मूलानुसारी संशोधन किया । प्रस्तुत अनुवाद न तो शब्दशः अनुवाद ही है और न सारांशात्मक है । मूल लेखक के किसी भी विशिष्ट शब्द को नहीं छोड़ते हुए, कथा एवं भाषा के प्रवाह को अक्षुण्ण रखते हुए मैंने अनुवाद करने का प्रयत्न किया है । साधारणतः भाषा भी संस्कृतनिष्ठ न रखकर जनसाधाररण की ही भाषा का प्रयोग किया है, किन्तु विषयगाम्भीर्य के अनुसार कुछ कठिन शब्दों का समावेश भी करना पड़ा है । मैंने इस अनुवाद में देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड से प्रकाशित संस्करण को ही मूल आधार बनाया है । शोध छात्रों की सुविधा के लिये इस संस्करण का कौन से पृष्ठ का और कौन से पद्यांक का अनुवाद चल रहा है ? इसका संकेत मैंने पाद-टिप्पणी में सर्वत्र पृष्ठांक देकर किया है । साथ ही पद्यांक भी अनुवाद के साथ ही [ ] कोष्ठक में दिये हैं । यद्यपि अनुवाद और संशोधन मैंने निष्ठा के साथ किया है तथापि यदि किसी स्थल पर मूल लेखक की भावना के विपरीत अनुवाद कर दिया हो, या कहीं अनुवाद में स्खलना रह गई हो अथवा प्रूफ संशोधन में अशुद्धियां रह गई हों, इसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ और सुविज्ञ पाठकों से अनुरोध करता कि त्रुटियों को परिमार्जित कर मुझे उपकृत करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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