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________________ प्रस्ताव ७ : प्रगति के मार्ग पर ३०३ मेरे पास-पास ऐसी अद्भुत समृद्धि को देखकर मेरी आँखें विस्मय से प्रफुल्लित हो गईं और मैं सोचने लगा कि कौन से सत्कार्य के फलस्वरूप मुझे यह ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त हुई है । हे विमललोचने ! उस समय मुझे ज्ञान हुया कि विरोचन के भव में मैंने रुचि और समझ पूर्वक जो गृहस्थ-धर्म का पालन किया था उसी का यह फल मुझे मिला है । मैं सोच ही रहा था कि सेनापति सम्यग्दर्शन और सदागम मेरे पास आ पहुँचे । तब मुझे ध्यान पाया कि यह सब इन पुण्यपुरुष महात्माओं का प्रताप है। उसी समय मैंने दोनों को अपने बन्धु के समान स्वीकार कर लिया। इस निश्चय के साथ ही मैं शय्या से उठा और देवताओं के योग्य अपने कर्तव्यों को पूरा करने में लग गया। [६४८-६५१] * देव कर्तव्य का पालन देवभूमि में रत्नकिरणों की प्रतिच्छाया से रक्तिम दिखाई देने वाले जल से पूर्ण और प्रफुल्लित कमलों से शोभायमान सरोवर में हृष्ट-पुष्ट नितम्ब और पयोधरों वाली रूपवती देवांगनाओं के साथ मैंने जलक्रीड़ा की। फिर मैं लीलापूर्वक जिन मन्दिर में गया । यह जिन मन्दिर अति भव्य और शुद्ध स्वर्ण से निर्मित था तथा इसका प्रांगन रत्न-जटित था। वहाँ दृढ़ भक्ति पूर्वक मैंने जिनेन्द्र भगवान् को वन्दन किया। फिर मैंने तीर्थंकर देव के वचनों से परिपूर्ण मणिरत्नमय निर्मल पत्रों में संग्रहित मनोहर पुस्तक को खोला। इस पुस्तक के लिखित वर्णन को पढ़ने से रोम-रोम विकसित होता था। ऐसी सुन्दर पुस्तक को पढ़ा और मुझे क्या-क्या करना है, इसकी जानकारी उस ग्रन्थ से प्राप्त की। इस देवलोक में मैंने इच्छानुसार पाँचों इन्द्रियों के भोग भोगे और दो सागरोपम से कुछ कम काल तक मैं यहाँ मानन्दपूर्वक रहा । [६५२-६५५] कलन्द प्रामीर ___ यहाँ का समय पूरा होने पर भवितव्यता ने मुझे फिर एक गोली दी जिससे मैं पुनः मानवावास में मदन नामक आभीर (ग्वाले) की पत्नी रेणा की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । यहाँ मेरा नाम कलंद रखा गया । हे सुन्दरांगि ! यहाँ आने पर मेरे प्रिय बन्धु सम्यग्दर्शन और सदागम को तो मैं भूल ही गया। वे यहाँ आये ही नहीं । हे भद्रे ! मैंने वहाँ गृहिधर्म को भी नहीं देखा । क्योंकि, सम्यग्दर्शन और सदागम के अभाव में वह एकाकी दृष्टिगोचर भी नहीं होता । फिर भी, हे हंसगामिनि ! पूर्वभव में मेरा कुछ विकास हुना था जिससे मैं पाप से डरता रहा और भद्र परिणाम से ही मैंने ग्वाले के भव को पूरा किया। [६५६-६५६ ] विस्मृति और भ्रमण भवितव्यता द्वारा दी गई अन्य गोली से मैं मानवावास से ज्योतिषी देवगति में उत्पन्न हुआ । यहाँ भी मुझे अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई। खूब इन्द्रियों को तृप्त • पृष्ठ ६८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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