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________________ २६६ उपमिति-भव-प्रपंचा कथा उस कैदखाने में प्राप्त हुए। महामोह के वशीभूत एवं राज्यभ्रष्ट होने से मुझे कितना मानसिक एवं शारीरिक सन्ताप हो रहा था इसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता । मेरे इस विपुल राज्यवैभव और समृद्धि को अन्य लोग भोग रहे हैं, इस शोक से मैं पीड़ित था । सुख में पले पोसे मेरे इस शरीर की ऐसी दुर्दशा हो, मेरे ही सेवक मेरा तिरस्कार/अपमान करें, इस प्रकार पीड़ित करें यह कितनी मानसिक-सन्ताप की बात थी। मेरे स्वर्ण भण्डार और रत्नों को जिन पर मेरा स्वामित्व था उसे दूसरे लोग चुरा रहे हैं। हाय मैं मारा गया ! यों मैं धन-मूर्छा से व्यथित हुा । [८५४-८६०] हे भद्रे ! दुःखपूरित नरक जैसे कारावास में मैं अपने पापकर्मों से बहुत समय तक रहा। हे चारुलोचने ! मैंने इतनी शारीरिक और मानसिक पीड़ायें महामोह और उसके परिवार के दोष के कारण ही सहन की थी, फिर भी संसार पर से मेरी आसक्ति कम नहीं हुई। बहुत समय तक कैदखाने में बैठा-बैठा भी मैं अन्य लोगों पर क्रोध करता रहा, आर्त-रौद्र ध्यान करता रहा और बदला लेने का विचार करता रहा । [८६१-८६३] अन्त में मुझे दी हई उस भव की गोली जीर्ण हई और मेरी स्त्री भवितव्यता ने मुझे नई गुटिका प्रदान की तथा उसी के प्रभाव से पापिष्ठनिवास के सातवें मोहल्ले (सातवीं नरक) में मैं पापिष्ठ (नारकी) के रूप में उत्पन्न हुआ। [८६४-८६५] १६. अनन्त भव-भ्रमण पापिष्ठनिवास नगरी के अप्रतिष्ठान नामक स्थान पर मैं ३३ सागरोपम काल तक अनेक प्रकार के वज्र के कांटों से छिन्न-भिन्न होते हुए गेंद की तरह से उछलता रहा । फिर अन्य गोली देकर भवितव्यता मुझे पंचाक्षपशुसंस्थान में ले गयी और वहाँ मच्छ के रूप में उत्पन्न किया । वहाँ से मेरी गोली (पायु) समाप्त होने पर दूसरी गोली देकर भवितव्यता मुझे फिर पापिष्ठनिवास के अप्रतिष्ठान स्थान में ले गई और वहाँ से वापस पंचाक्षपशुसंस्थान में सिंह के रूप में उत्पन्न किया। [८६६-८६८] यहाँ से गोली समाप्त होने पर अन्य-अन्य गोलियाँ देकर पापिष्ठनिवास के चौथे मोहल्ले में और फिर पंचाक्षपशुसंस्थान में बिलाव के रूप में उत्पन्न किया। इस प्रकार मेरी पत्नी भवितव्यता ने विविध प्रकार के नये-नये रूप धारण करवाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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