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________________ २६४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कामदेव के पुष्पबाण से आहत होते ही मैं शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्ध में अन्धे व्यक्ति के समान लुब्ध हो गया। मैं इन पाँचों भोगों में इतना डूब गया कि मेरी सद्बुद्धि कब नष्ट हो गई, मुझे पता ही नहीं चला। कीचड़ भरे गड्ढे में पड़े सूअर के समान मैं विषयों के अपवित्र कीचड़ में रात-दिन निर्लज्ज होकर निमग्न रहने लगा। अनेक प्रकार के भोगों को बहुत समय तक अनेक बार भोगने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई। घी पिलाने से कभी दुबला बन्दर मोटा हुआ है ? जितने अधिक भोग मैं भोगता उतनी ही अधिक मेरी भोग-तृष्णा बढ़ती रहती। यह सत्य ही है कि बडवानल अग्नि में पानी डालने से वह और भभकती है। चन्द्र-किरण के समान निर्मल अकलंक के उपदेश, महामोह रूपी बादलों से आवृत हो जाने से मैं उन सब शिक्षाओं को पूर्णरूपेण भूल गया। तब मुझे इस प्रकार भाव-शत्रुओं से घिरा हा देखकर सदागम ने समझ लिया कि अभी उसका अवसर नहीं है, अतः वह भी मेरे से दूर चला गया। [८२३-८२८] ऐसे विचित्र संयोगों में भी मेरी सभी इच्छायें पूर्ण होती थीं, यह मेरे अन्तरंग मित्र पुण्योदय की ही कृपा थी, पर उस समय मैं मूढ इस बात को नहीं समझ पाया। __कामदेव के वशीभूत होकर सब राज्य-कार्यों को छोड़कर मैं रात-दिन अपने अन्तःपुर-स्थित स्त्रियों के साथ भोग-विलास करते हुए रहने लगा। नगर में कोई सुन्दर स्त्री दिखाई देती या उसके सम्बन्ध में किसी से सुनता तो उस स्त्री को चाहे वह कुलवान हो या कुलहीन, पकड़वा कर अपने महल में मंगवा लेता और बलात्कार पूर्वक उसे अपनी पत्नी बना लेता। न तो मैं पाप का ही विचार करता, न कुलकलंक की ही चिन्ता करता,* न अपने राज्यधर्म के विषय में ही सोचता और न मंत्रियों द्वारा रोके जाने पर ही रुकता। [८२६-८३३] राज्यभ्रष्ट धनवाहन मेरे इस अधम आचरण से मेरी प्रजा, सामन्त, सगे-सम्बन्धी सभी मेरे से विरक्त हो गये, उद्विग्न एवं रुष्ट हो गये। मेरी सेना भी मेरी निन्दा करने लगी । सभी जगह गुणों की पूजा होती है, पूजा में सम्बन्ध कारणभूत नहीं होते । लोगों द्वारा हो रही मेरी निन्दा गरे को जानते हुए भी मैं महामोह के वशीभूत होकर निन्दनीय कार्यों में आकण्ठ डूबा ही रहा । मुझ पापिष्ठ ने नीच कुलोत्पन्न, मनुष्यों के लिए अगम्य/अयोग्य स्त्रियों को भी अपने अन्तःपुर में रख लिया। [८३४-८३७] मेरे नीरदवाहन नामक एक छोटा भाई था जो लज्जालु, विनयवान, सुस्वभावी, लोकप्रसिद्ध, पुरुषार्थी एवं महाउद्योगी था। मेरे अत्यन्त अधम व्यवहार से उद्विग्न प्रजाजन, सामन्त, मंत्री एवं सेनापति ने एक दिन एकत्रित होकर विचार * पृष्ठ ६५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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