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________________ २८४ उपमिति भव-प्रपंच कथा पीड़ित करने लगा । अनेक प्रकार की भोग-तृप्ति के लिये मैंने महलों में हजारों स्त्रियां एकत्रित की, सोने से सैकड़ों कुए भर दिये और महामोह के अधीन होकर पृथ्वी को स्वर्ण रहित बना दिया । इस संसार में ऐसा कौनसा पाप होगा जो मैंने मोह और परिग्रह के वश में होकर न किया हो ! मेरी सारी इच्छायें मेरे अन्तरंग मित्र पुण्योदय की कृपा से पूरी होती थी, पर मैं मोह और परिग्रह के वशीभूत इस तथ्य को न समझ सका । उसे प्रेम का प्रत्युत्तर भी नहीं दिया, जिससे वह मुझ पर कुछ क्रोधित हो गया । [ ७०८-७१३ ] शोक का आगमन उसी समय मेरी हृदयवल्लभा प्रिया मदनसुन्दरी जो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय थी वह शूल-व्याधि से पीड़ित हुई । थोड़े दिन व्याधिग्रस्त रही और अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुई । मेरे हृदय पर भारी आघात लगा । [ ७१४] इसी समय महामोह का एक बड़ा योद्धा शोक, जो अत्यन्त विनयी सेवक था, अपने स्वामी के पास आया । आदर-पूर्वक अपने स्वामी को प्रणाम किया और अवसर देखकर अत्यन्त कपट - पूर्वक मुझ में समा गया । [ ७१५ - ७१६ ] देवी मदनसुन्दरी को पुनः पुनः याद कर मैं उच्च स्वर से रोने लगा, चिल्लाने लगा, सिर पीटने लगा और आँसू गिराने लगा । मैंने अपने शरीर - संस्कार और राज्यकार्य पर ध्यान देना एकदम बन्द कर दिया और अत्यन्त दुःखित अवस्था में ऐसा बन गया मानो मुझे कोई ग्रह लगा हो । [ ८१७-७१८ ] अकलंक का उपदेश * किसी ने अकलंक मुनि के पास मदनसुन्दरी की मृत्यु और मेरे शोकमग्न होने के समाचार पहुँचा दिये । यह सुनकर मुझ पर कृपा कर वे मेरे नगर में पधारे। उन्होंने आकर देखा कि मैं एकदम शोकमग्न हूँ और मैंने सभी सत्कार्य छोड़ दिये हैं, तब मुझ पर दया कर उन्होंने कहा- भाई घनवाहन ! यह तू क्या कर रहा है ? क्या तू मेरा वचन एकदम भूल गया है ? क्या तूने सदागम को छोड़ दिया है ? अरे ! इन दुष्टों ने तुझे सचमुच ठग लिया है। भाई ! तू तो सब कुछ समझता था, प्रांतरिक रहस्य जानता था, फिर ऐसी बच्चों जैसी चेष्टा क्या तुझे शोभा दे रही है ? शोक तुझे बार-बार मदनसुन्दरी की याद दिलाकर तेरे चित्त को व्याकुल कर रहा है, क्या तू यह नहीं जानता ? मेरी बतायी सब बातें भूल गया ? अरे ! तनिक सोच तो सही ! सभी प्राणी यमराज के मुंह में ही हैं तथापि उनका एक क्षरण का जीवन भी आश्चर्यजनक ही है । यमराज कब ग्रास बना लेगा यह कोई नहीं जानता । यमराज इतना क्रूर है कि यह प्र ेम, बन्धन, अवस्था, सम्बन्ध किसी की भी अपेक्षा नहीं करता । मदमस्त हाथी की तरह उसके मार्ग में जो भी आता * पृष्ठ ६६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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