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________________ प्रस्ताव ७ : महामोह और परिग्रह २७७ प्राप्त धन का भली प्रकार रक्षण करता है और अप्राप्त के लिये प्रयत्न करता है, जो कभी संतुष्ट होकर नहीं बैठता, उसी को निरन्तर सुख प्राप्त होता है। [६३४-६३५] हे सुलोचने ! सदागम, महामोह और परिग्रह की ऐसी भिन्न-भिन्न शिक्षा को सुनकर मेरा मन किञ्चित् डांवाडोल हो गया। मैं निर्णय नहीं ले सका कि मुझे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिये । इसी समय ज्ञानसंवरण जो छिप गया था, महामोह की उपस्थिति से उसमें पुनः शक्ति पाई और भय छोड़कर वह मेरे शरीर में पुनः प्रविष्ट हो गया। इससे सदागम द्वारा दिया गया उपदेश और उसका रहस्य मेरी समझ में नहीं आया और उसकी मधुर वाणी से मेरा चित्त रंजित नहीं हुआ । हे भद्रे ! अनादि काल से अत्यन्त अभ्यस्त होने के कारण महामोह और महापरिग्रह का कथन मुझे सचोट लगा और वह मेरे हृदय में जम गया। अतः मैंने देव-पूजा, गुरु-वन्दन, नमस्कार मंत्र का जाप आदि धर्मक्रियाओं का त्याग कर दिया और भोगों में आसक्त हो गया। मैंने साधुनों को दान देना और अन्य सत्कार्यों में धन का उपयोग करना बन्द कर दिया तथा अधिकाधिक धन एकत्रित करने लगा। प्रजा पर नये-नये कर थोपने लगा जिससे प्रजा कर के बोझ से दब-सी गयी। फिर मुझे सभी सांसारिक कार्यों में अत्यन्त गाढ आसक्ति होने लगी। मोहराज अपनी शक्ति का यथाशक्य उपयोग करने लगा। सदागम के प्रति मुझे तनिक भी रुचि नहीं रही। परिग्रह के वशीभूत मुझे सब कुछ कम ही नजर आने लगा । चाहे जितनी प्राप्ति हो फिर भी मेरी इच्छा कभी पूरी नहीं होती। जितना अधिक मिले उससे भी अधिक अर्थात् समस्त धन प्राप्त करने की इच्छा होती रहती । * मेरी आन्तरिक स्थिति को ऐसी देखकर सदागम मुझ से दूर चला गया। महामोह और परिग्रह मेरे आन्तरिक राज्य के स्वामी बन गये। उनकी इच्छा पूरी हुई जिससे उन्हें प्रसन्नता और संतोष हुआ । [६३६-६४४] अकलंक मुनि और कोविदाचार्य का प्रागमन अन्यदा कोविदाचार्य मेरे मित्र अकलंक और अन्य साधुओं के साथ भिन्नभिन्न स्थानों में विहार करते हुए मेरे नगर में आये। मैं वैसे किसी साधु को वन्दन करने नहीं जाता था, पर अकलंक से मेरा पुराना गाढ स्नेह था इसलिये उसे प्रसन्न करने के लिये वहाँ गया और अकलंक तथा उसके गुरु कोविदाचार्य तथा अन्य सभी मुनियों को नमस्कार किया। ___ कोविदाचार्य ने अपने ज्ञान बल से मेरा पूरा इतिवृत्त (चरित्र) जान लिया था । अन्य लोगों से भी अकलंक ने मेरे बारे में बहुत कुछ सुन लिया था। अतः प्रसंगानुसार मुनि अकलंक ने अपने प्राचार्य से कहा-नाथ ! सदागम का क्या महत्त्व है और उसकी कितनी शक्ति है ? यह राजा धनवाहन को समझाने की कृपा - • पृष्ठ ६६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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