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________________ २७२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अगृहीतसंकेता--प्राचार्य की वाणी मेरी स्मृति-पटल में भलीभांति नहीं पा रही है अतः तू ही पूर्व-प्रसंग को स्पष्ट कर । संसारी जीव-हे चपललोचना भद्रे ! आचार्य बुधसूरि ने अपनी आत्मकथा कहते हुए कहा था कि उनका एक पुत्र विचार देश-देशांतरों का भ्रमण करने के लिये प्रवास पर गया था और वह भवचक्रपुर में घूम कर, निरीक्षण कर, बहुत समय के पश्चात् मार्गानुसारिता को साथ लेकर वापस लौटा था। उसने एकांत में मुझे (बुधसूरि को) महाबलवान मोहराज और चारित्रधर्मराज के बीच हुए युद्ध का वर्णन सुनाया था। उसने यह भी कहा था कि इस युद्ध में मोहराज की जीत हुई थी और दर्प के साथ चारित्रधर्मराज की सेना को चारों तरफ से घेरकर खड़ा था। इस प्रकार चारित्रधर्मराज को घिरी हुई स्थिति में देखकर और उसके चारों ओर दपिष्ठ मोहराज की बलवान सेना देखकर वह मेरे पास आया था। [५४६-५५६] ___ इतना सुनते ही अगृहीतसंकेता को पहली सब बातें याद आ गई और उसने समर्थन किया कि, हाँ घ्राण के दोष बताते समय यह वार्ता पहले आ चुकी है, अब मुझे सारी बातें भली-भांति याद आ गई हैं। भाई ! तत्पश्चात् इसके आगे क्या हुआ ? वह सुनायो । [५५७-५५८] तब संसारी जीव ने कहा-हे मृगलोचने ! अब मैं आगे की आत्मकथा (घटनाओं) का वर्णन करता हूँ, तुम ध्यान पूर्वक सुनो। अनन्तकाल से चित्तवृत्ति अटवी में चारित्रधर्मराज की पूरी सेना चारों तरफ से घिरी हुई थी। यह घटना तेरे लक्ष्य में आ ही गई । मैं अकलंक के समीप खड़ा-खड़ा उसकी बात सुन रहा था। उस समय जो घटना घटित हुई उसे भी सुनो। [५५६-५६१] अपनी सेना को शत्रुबल द्वारा घिरा हुआ और पीड़ित देखकर सद्बोध मंत्री ने विषण्णवदन चारित्र धर्मराज से कहा-देव ! अब इस विषय में अधिक चिन्ता की आवश्यकता नहीं है। हमारे मनोरथ वृक्ष के पुष्प आने लगे हैं, इससे लगता है कि अब हमारा कार्य सिद्ध होगा । वस्तुतः जब तक यह महा प्रभावशाली संसारी जीव हमको नहीं पहचानता तभी तक हमें शत्रों की पीड़ा है। जैसे ही यह हमको पहचानेगा, हमें सांत्वना देगा और हमारा संपोषण करेगा वैसे ही हम शत्रु (मोहराज) की पूरी सेना को नष्ट करने में समर्थ हो जायेंगे। हे देव ! यह संसारी जीव ही हमारा महाप्रभु है । चित्तवृत्ति अटवी में पहले जो घोर अन्धकार फैला था, उसमें अब कुछ-कुछ प्रकाश किरणें दिखाई दे रही हैं। इससे अनुमान होता है कि अब संसारी जीव हमें विशेष रूप से पहचानने की स्थिति में आ रहा है। उसकी चित्तवृत्ति में रहे अन्धकार में हम ऐसे छिप गये थे कि उसने आज तक हमें देखा ही नहीं। पर, अब यह अन्धकार दूर हो रहा है और उसमें प्रकाश किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं, अतः संसारी जीव हमारा दर्शन अवश्य करेगा । मेरा यह परामर्श है कि हमारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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