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________________ २७० उपमिति-भव-प्रपंच कथा मुनिश्रेष्ठ ने हमें बताया कि क्लेशरहित मन ही संसार-समुद्र को शीघ्र पार करवाने का हेतु है । लेश्या के परिणामों से ही मन को क्लेशरहित बनाया जा सकता है । जब वह विशुद्ध लेश्या द्वारा शुद्ध अध्यवसायों की तरफ ले जाया जाता है तभी वह क्लेशरहित होता है और क्लेशरहित होकर ही संसार को पार कराने में समर्थ होता है । दूसरी महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही कि मन ही शिवगमन (मोक्ष) का कारण है और वही संसार का भी कारण है, ऐसा मुनिगण कहते हैं। पूर्व प्रकरण में जिस कमरे, गर्भगृह, बन्दर के बच्चे आदि का वर्णन किया गया है, वह सभी प्राणियों के लिये समान ही है । बन्दर का बच्चा जब पूर्व-वणित सीढियों पर चढ़ता है तब उसका चढ़ना ही भव संसार का कारण है। चढ़ते हुए उसके आसपास जो दुकानें आती हैं, उसमें वह उछलता हुआ चला जाता है और प्राणी को भी शीघ्र उस दुकान पर ले जाता है । [५२३-५२८] मैंने पूछा-मित्र अकलंक ! तुम्हारा कथन मैं नहीं समझ पाया, इसका आन्तरिक भावार्थ क्या है ? अकलंक-भाई घनवाहन ! सुनो-लेश्या और उसके अध्यवसाय तो तेरी समझ में आ गये होंगे। मरने के समय प्राणी का चित्त जिस लेश्या के अध्यवसाय में होता है, अन्य भव में प्राणी उसी लेश्या के वैसे ही अध्यवसाय में उत्पन्न होता है । कहा भी है "अन्त मति सो गति ।" चित्त असंख्य अध्यवसायों में प्रवृत्ति करता रहता है, इसीलिये वह चित्र-विचित्र योनि रूपी संसार का कारण बनता है। यदि यह चित्त दोषपूर्ण अध्यवसाय में प्रवृत्ति करता है तो संसार का कारण बनता है और यदि वही निर्दोष/विशुद्ध अध्यवसाय में प्रवृत्ति करता है तो मोक्ष का कारण बनता है । यह चित्त ही तेरा वास्तविक अंतरंग धन है । धर्म और अधर्म, सुख और दुःख का प्राधार भी यही चित्त है । अत: इस चित्तरूपी अमूल्य रत्न की भली प्रकार रक्षा करनी चाहिये । * भावचित्त और जीव परस्पर एक ही है, विभेद नहीं है । अतः जो प्राणी भावचित्त की रक्षा करता है वह अपनी प्रात्मा की रक्षा करता है । जब तक यह चित्त भोग की लोलुपता से वस्तुओं और धन को प्राप्त करने के लिये जहाँ-तहाँ दौड़ता रहेगा तब तक उसे सुख की गंध भी कैसे प्राप्त हो सकेगी ? [५२६-५३४] जब यह चित्त नि:स्पृह होकर, सर्व प्रकार के बाह्य-भ्रमण का त्याग कर, इच्छारहित होकर अपनी प्रात्मा में स्थिर होगा तभी तुझे परम सुख की प्राप्ति होगी। कोई भक्ति करे या स्तुति करे, कोई ऋद्ध हो या निन्दा करे, इन सब पर एक समान दृष्टि हो, सब पर चित्त में समान भाव हो, तभी तुझे परम सुख की प्राप्ति होगी। * पृष्ठ ६५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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