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________________ प्रस्तावनां ८६ सिद्ध ने उत्तर दिया- 'रात, मैं देर से घर पहुँचा, तो माँ ने दरवाजा न खोल कर, उल्टा यह कहा- जहाँ का दरवाजा खुला हो, वहाँ चले जाओ। इसलिए, मैं यहाँ आया हूँ, और आपके पास ही रहना चाहता हूँ ।' गुरु ने उन्हें कहा – 'हमारे पास, हमारा वेष लिये वगैर तुम नहीं रह सकते । और, फिर तुम्हारे जैसे व्यसनी के लिए, यह वेष लेना और उसकी मर्यादायों का पालन करना कठिन है । क्योंकि, हमारा वेष लेने वाले को, नंगे पैर पैदल चलना पड़ता है । भिक्षा में जो कुछ भी रूखा-सूखा मिल जाये, वही खाना पड़ता है । सिर के बालों का लोच करना पड़ता है । इसलिए, तुम्हारे लिए यह वेष धारण कर पाना दुष्कर है ।' सिद्ध ने कहा- 'हमारे जैसे जुम्रारी को धूप - वर्षा - सर्दी सब सहन करने पड़ते हैं । जहाँ जगह मिल जाये, वहीं रहना पड़ता है । जब दुर्व्यसनों के लिए हम इतने कष्ट उठाते रहे हों, तब उन्नति के लिए क्या कुछ सहन नहीं कर सकेंगे ? ग्राप निःसंकोच, प्रातः काल मुझे दीक्षा दें ।' गुरु ने कहा – 'तुम्हारे माता-पिता कुटुम्बीजनों की आज्ञा के बिना, हम दीक्षा नहीं देते । अत: उनसे प्राज्ञा मिलने पर ही दीक्षा दे पायेंगे ।' सिद्ध ने कहा - " जैसा आप उचित समझें ।' और वहीं, बैठ गया । प्रातःकाल होते ही, उसके पिता ने पुत्र के बारे में पूछा, तो लक्ष्मी ने सारा किस्सा उसे बता दिया । सुनकर, सेठ को बहुत दुःख हुआ । और, अपने बेटे को ढूंढ़ने के लिए घर से निकल पड़ा । ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वह उपाश्रय में भी पहुँचा । वहाँ सिद्ध को बैठा देखकर, उसने उसे घर चलने को कहा । सिद्ध बोला- 'पिताजी ! घर तो छोड़ दिया है । अब इनकी सेवा में ही रहूंगा।' सेठ ने कहा- 'तू अकेला मेरा बेटा है । करोड़ों की सम्पत्ति है । यह सब किस काम आयेगी ? साधु - जीवन में बहुत परीषह सहने पड़ेंगे ।' सिद्ध, अपनी बात पर डटा रहा, तो सेठ को आज्ञा देनी ही पड़ी । इस तरह प्रारी सिद्ध, सिद्धमुनि बना । आचार्य सिद्धर्षि गरणी निवृत्ति कुल के थे । भगवान् महावीर की युगप्रधान पट्टावली के अनुसार २१ वें पट्टधर वज्रसेन हुए हैं, उन्होंने सोपारक नगर में श्रेष्ठी जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को आर्हती दीक्षा प्रदान की थी। उनके नाम थे - नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर । इन चारों के नाम से चार परम्परायें प्रारम्भ हुईं, जो नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुलों के नाम से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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