________________
प्रस्ताव ७ : रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ
२४६
सन्मुनियों के उपालम्भ पूर्ण उपदेश रूपी वचनामृत सुनकर योग्य की ही भांति देशविरतिधर श्रावक भी अपनी प्रवृत्ति के लिए लज्जित होते हैं, सच्चे-झूठे उत्तर नहीं देते और मन में झूठा अभिनिवेश नहीं रखते । परन्तु साधु के वचनों को अपने हित के लिये स्वीकार करते हैं, उनका आदर करते हैं और यथोक्त विधान के अनुसार भगवत्प्ररूपित महाव्रतों को स्वीकार कर अपने प्रात्मा रूपी जहाज को गुरण-रत्नों से भर लेते हैं।
जैसे चारु ने हितज्ञ के पास जाकर स्वयं के साथ स्वदेश लौटने को आमंत्रित किया, उस पर हितज्ञ ने स्वोपार्जित धन-राशि चारु को दिखाई । चारु ने जब उसके जहाज में भरे हुए रत्नों के स्थान पर शंख, कौड़े और काच के टुकड़े देखे तब उसका कारण पूछा। हितज्ञ ने मौज-शौक को इसका कारण बताया। वैसे ही हे भद्र धनवाहन ! मिथ्यादृष्टि भव्य प्राणियों की भद्रता को देखकर सम्पूर्ण गुणोपेत सुसाधु उन्हें सद्धर्म-उपदेश * देने को तत्पर होते हैं। इस कथन को चारु हितज्ञ के पास गया-के तुल्य समझे।
तदनन्तर ये साधु उन भद्रक भव्य मिथ्यादृष्टि प्राणियों को अपने धर्मोपदेश द्वारा मोक्ष का आमन्त्रण देते हैं। उत्तर में वे भव्य मिथ्यादृष्टि कहते हैं- हम भी तो धर्मानुष्ठान करते हैं, नित्य स्नान करते हैं, अग्निहोत्र प्रज्वलित रखते हैं, तिल और समिधा द्वारा होम करते हैं, गाय, भूमि और सोने का दान देते हैं, कुए, तालाब और बावड़ी खुदवाते हैं, कन्यादान करते हैं। ऐसा कहने वाले प्राणियों ने शंख, कौड़े और काच के टुकड़े इकट्ठे कर रखे हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
ऐसे मिथ्यादृष्टि प्राणी सुसाधुओं से निवेदन करते हैं - भो- भट्टारक ! हम सुख से रहते हैं क्योंकि माँस खाते हैं, मद्य पीते हैं, सरस स्वादिष्ट बत्तीस प्रकार का भोजन करते हैं, तैंतीस प्रकार की सब्जी खाते हैं, सुन्दर स्त्रियों के साथ विलास करते हैं, सुकोमल निर्मल मूल्यवान वस्त्र पहनते हैं, पांच सुगन्धित युक्त पान खाते हैं, विविध पुष्पमालायें धारण करते हैं, विलेपन करते हैं, धन का ढेर इकट्ठा करते हैं
और हमारी इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए विचरण करते हैं। शत्रु की गन्ध भी सहन नहीं करते, स्वकीय कीति को चारों दिशाओं में फैलाते हैं, अपनी कांति और व्यवहार को मनुष्यभूमि के देवता के सदृश बनाते हैं और मनुष्य जन्म में जो कुछ सार रूप है, उन सब का स्वयं अनुभव करते हैं। इस सब को हितज्ञ के बाग-बगीचों में घूमने के समान समझना चाहिये।
हितज्ञ के मुख से स्वचेष्टित कथन सुनकर जैसे कृपापूरित हृदय से चारु ने हितज्ञ को कहा–'मित्र ! तू पापी धूर्त लोगों से ठगा गया है। तू स्वयं अनभिज्ञ होने से रत्नों के गुण-दोषों का परीक्षण करने में असमर्थ है। तू रत्नद्वीप रत्नों का व्यापार करने के लिये आया है अतः काननादि घूमने और मौज-मस्ती का व्यसन
* पृष्ठ ६३८ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org