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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
करता है । प्राणी को ऐसी महान कल्याणकारी परम्परा अधिकांश में सत्साधु एवं गुरुजनों की सेवा से ही प्राप्त होती है, इसीलिये मनीषियों ने कहा है
[१७८-१८६] ___ भक्तिपूर्वक निरन्तर साधु-सेवा, भावपूर्वक प्राणियों के प्रति मैत्री और अपने अाग्रह का त्याग ही धर्म हेतु के साधन हैं। [१६०]
साधु-सेवा से निरन्तर वास्तविक और शुभकारी उत्तम उपदेश प्राप्त होता है, धर्म का आचरण करने वाले महापुरुषों का दर्शन होता है और योग्य पात्र के प्रति विनय करने का प्रसंग प्राप्त होता है। साधु-सेवा का यह कोई सामान्यफल नहीं अपितु महाफल है । [१६१]
___मैत्री की भावना वाले प्राणी के शुभ भावों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, शुभ भाव रूपी जल के छिड़काव से द्वषरूपी अग्नि शान्त होती जाती है।
[१६२] झूठे आग्रह का त्याग करने से निखिल दोषों को उत्पन्न करने और समस्त गुणों का घात करने वाली तृष्णा चली जाती है। इस प्रकार गुण समूह से युक्त होकर विशुद्ध आत्मा जब अपने प्राशय में स्थिर होकर कार्य सिद्ध करती है तब तत्त्वज्ञानी उसे सम्यग् धर्म का साधक कहते हैं । [१६३-१६४]
भाई घनवाहन! मुनि ने जो यह बात कही, उसका रहस्य यही है कि करुणा-तत्पर ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले ने मुनि को बोध दिया।
[१९५] ___ इस कथा में मनि ने जो अन्य बात कही वह तो प्रथम मुनि की कथा में भी आ चुकी है, अतः उसका निष्कर्ष स्पष्ट होने से मैं पुनः वर्णन नहीं करता हूँ। यह तो स्पष्ट है कि त्याग (विरति) रहित समग्र प्राणी कर्मरूपी मद्य में आसक्त और धुत्त रहते हैं, जब कि साधुगण संसार-मद्यशाला में रहते हुए भी उससे दूर रहते हैं । इस मुनि को ब्राह्मण रूपी साधु ने कर्ममद्य से यत्नपूर्वक अलग किया और उसे दीक्षा दी, यही उसके वैराग्य का कारण है। दीक्षा के प्रताप से कर्मरूपी अजीर्ण के विष को समाप्त कर यह मुनि भी संसार-मद्यशाला से बाहर चले जायेंगे, मुक्त हो जायेंगे।
[१६६-१६६] भद्र घनवाहन ! ऐसी दुःखद और गंदी मद्यशाला में अपने जैसों का जानबूझ कर रहना उचित नहीं है । [२००]
हे अगृहीतसंकेता ! अकलंक ने इस प्रकार इस कथा का विस्तार से विवेचन किया, पर मुझे तो उससे कुछ भी बोध प्राप्त नहीं हुआ। जैसे शून्य अरण्य में मुनि मौन धारण करते हैं वैसे ही मैं भी चुप रहा। फिर हम दोनों तीसरे मुनि के पास गये। [२०१-२०२]
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