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________________ २५ प्राकल्पिक समयको इस आधारपर भी पुष्ट किया जा सकता है कि भास्करनन्दि १२वीं शताब्दोके मध्य शुरू होनेवाले वीरशैव आन्दोलनसे जरा भी प्रभावित नहीं हुए। अपनी तत्त्वार्थवृत्ति १:१में, वे मुक्तिके साधन और स्वरूपपर धर्म-विरोधी मतोंके खण्डनके सन्दर्भ में 'यशस्तिलक' का उद्धरण देते हैं। और अगर वे इस आन्दोलनके दौरान जीवित होते, तो वे किसी न किसी रूपमें आलोचनाओं द्वारा उन्हें मुंहतोड़ जवाब दे सकते थे। यह तथ्य कि उन्होंने १०वीं शताब्दी में विद्यमान सोमदेवके ग्रन्थका उद्धरण दिया, यह जाहिर करता है कि वे उस कालमें जीवित थे, जब जैन अपने जीवनके मार्गका अपेक्षाकृत शान्त धार्मिक परिवेशमें अनुसरण करने में समर्थ थे। यह सत्य है कि रामानुजका वैष्णव सम्प्रदाय १२वीं शताब्दीके आरम्भमें ही काफी शक्तिशाली हो चुका था। फिर भी, उनका तर्क विशेषतया वेदान्तके शंकर स्कूलके विरुद्ध पलटा खा गया था, और यहाँ तक कि महाराज विष्णुवर्धन ( १११०-४१ ई.) के बारे में, जो जैनधर्मसे वैष्णवधर्ममें चले गये ( ? ) ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने दूसरे धर्मों के साथ भी सहिष्णुता दिखलायी। अमितगतिको सामान्यतया नेमिचन्द्रका समकालीन ठहराया गया है, अर्थात् १००० ई.में विद्यमान । यह गणना करना कठिन है कि अमितगति और भास्करनन्दिके बीच कितनी कालगत दूरी स्वीकार की जानी चाहिए। फिर भी यह काफी निरापद है कि भास्करनन्दिके समयकी ऊपरी सीमाको ग्रहण कर लिया जाये, जो कि ११वीं शताब्दीका प्रारम्भ है । तब हम भास्करनन्दिके जीवनकालको ११वीं शताब्दीके आरम्भसे लेकर १२वीं शताब्दीके आरम्भके बीच व्यापक रूपसे कहीं स्वीकार कर सकते हैं। जब हम उनके कालका विचार करते हैं, तब यहाँ उसका अभिप्राय सिर्फ 'ध्यानस्तव'के रचनाकालसे होता है। जो भी हो, 'तत्त्वार्थवृत्ति' उससे कुछ ही समय पहले पूरी हुई मानी जायेगी, इसलिए इसे उनके इस समय उपलब्ध दो ग्रन्थोंका काल कहा जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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