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१०
२४-३२
ध्यानके चार प्रकार हैं, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रुपातीत, जिनकी व्याख्या है ।
३३-३६ परमात्माका वर्णन है ।
३७
सत्य और भौतिक प्रमाण-मीमांसा
३८
३९
४०-५७
बहिरात्माको ध्यान-सिद्धि में अयोग्य ठहराया गया है ।
नव पदार्थ, सप्त तत्त्व और षड् द्रव्योंका परिचय |
प्रमाण, नय और निक्षेपका परिचय |
नव पदार्थों की व्याख्या की गयी है । चैतन्यके रूपमें आत्मा के स्वभावका वर्णन ज्ञान और दर्शन विभागोंके सन्दर्भमें किया गया है ।
५८-६७
षड् द्रव्यों का वर्णन ।
६८-७६ प्रमाण, नय और निपेक्षकी परिभाषा और उपश्रेणियां |
तीन रत्न
७७-९२
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षोपाय कहे गये हैं ।
प्रशस्तिगान
९३ - १०० परमात्मा और ग्रन्थकारके कथनका स्तवन ।
२. ध्यानस्तव और तत्त्वार्थवृत्ति
ध्यानस्तव के अन्तिम श्लोकमें कहा गया है, "इस स्तोत्रकी रचना ध्यानानुरूप की गयी है-" 'ध्यानानुगम्' को 'ध्यान-सखा' के रूपमें भी प्रतिपादित किया जा सकता है । जिस भी अर्थ में हम इसे ग्रहण करें, यह स्पष्ट है कि हमारा स्तोत्र ग्रन्थकारकी तस्वार्थवृत्तिपर आधारित और उपजीवित है । 'ध्यानस्तव' के स्रोत के रूपमें उनकी वृत्ति निम्नलिखित
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