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॥ कल्याणकलिका, खं०२॥
॥ देवी प्रतिष्ठा ॥
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यस्याः प्रसादवशतो बहुभक्तिभाजा-माविर्भवन्ति हि कदाचन साऽस्तु लक्ष्यै ॥३॥ आ श्लोक बोली पुष्पाञ्जलि नांखे ॥३।। फरीथी पुष्पाञ्जलि लेइने - दैत्यच्छेदोद्यतायां परमपरमतक्रोधप्रबोध-क्रीडानिर्वीडपीडाकरणमशरणं वेगतो धारयन्त्या । लीलाकर्पूरकीलाजनितनिजनिजक्षुत्पिपासाविनाशः, क्रव्यादामास यस्यां विजयमविरतं सेश्वरा वस्तनोतु ॥४॥ आ श्लोक बोली पुष्पाञ्जलि नांखवी. ॥४॥ फरी पुष्पाञ्जलि ग्रहण करीने - लुलायदनुजक्षयं क्षितितले विधातुं सुखं, चकार रभसेन या सुरगणैरतिप्रार्थिता । चकार रभसेन या सुरगणैरति प्रार्थिता, तनोतु शुभमुत्तमं भगवती प्रसादेन सा ॥५॥ आ श्लोक बोली पुष्पाञ्जलि चढावबी. ॥५॥ फरीथी पुष्पाञ्जलि लेइने - सा करोतु सुखं माता, बलिजित्तापवारिणी । प्राप्यते यत्प्रसादेन, बलिजित्तापवारिणी ।।६।। आ श्लोक बोली पुष्पाञ्जलि नांखवी.॥६।। फरीथी पुष्पाञ्जलि लइने - जयन्ति देव्याः प्रभुतामतानि, निरस्तनिःसंचरतामतानि । निराकृताः शत्रुगणाः सदैव, संप्राप्य यां मंक्षु यजे सदैव ॥७॥ आ श्लोक बोली पुष्पाञ्जलि चढाववी, ॥७॥ फरीथी पुष्पाञ्जलि ग्रहण करी - सा जयति यमनिरोधन-की संपत्करी सुभक्तानाम् । सिद्धर्यत्सेवायामत्यागेऽपि हि सुभक्तानाम् ॥८॥ आ श्लोक बोली पुष्पाञ्जलि चढावची ।।८।।
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