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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान अब भगवतीसूत्र के योग की चर्या बताते है - बलि के लिए, अर्थात् देवी-देवता को समर्पित करने के लिए बनाया गया आहार, गर्हित आहार एवं मृतक्रिया के आहार का, अर्थात् मृत्युभोज का अति सावधानीपूर्वक त्याग करे। देवता आदि को समर्पित पात्र से संस्पर्शित आहार और उस आहार से संस्पर्शित अन्य आहार भी योगवाही को कल्प्य नहीं होता है। इसी प्रकार विकृति से संस्पर्शित एवं विकृतियुक्त आहार योगवाही के लिए कल्प्य नहीं होता है । अकृत योगी के साथ नगर से बाहर जाकर मल का उत्सर्ग आदि क्रियाएँ न करे और भिक्षा के समय भी उनके साथ गोचरी न जाए ।
गुरु के आदेश बिना उपधि की, अर्थात् मुनिजीवन की आवश्यक सामग्री से विभूषा न करे । पके हुए भोजन के अतिरिक्त विकृति को हाथ में ग्रहण करके भी यदि कोई भिक्षा दे, तो गणियोग का वहन करने वाला साधक वह भिक्षा ग्रहण न करे । गीले शरीर वाले, कुत्ते, बिल्ली, मांस का भक्षण करने वाले पक्षी एवं बछड़े का संस्पर्श करते हुए भी कोई भिक्षा दे, तो वह भिक्षा भी ग्रहण न करे । इसी प्रकार अन्य गीले चमड़े का, हाथी, घोड़े, गधे आदि का संस्पर्श मात्र होने पर भी भिक्षा न ले । यदि नपुंसक, या वेश्या के हाथ दूध, तेल, घी से युक्त हों, तो उनका स्पर्श न करे और उनसे स्पर्शित भिक्षा का यतनापूर्वक वर्जन करे। उसी दिन के मक्खन से युक्त काजल को आँखों में लगाकर यदि कोई भिक्षा दे, तो उसे ग्रहण न करे। यदि वह काजल अन्य दिनों का, अर्थात् दो-तीन दिन का हो, तो भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। यदि दाता स्त्री ने पुराने मक्खन को शरीर पर लगाकर उसी दिन अंजन किया हो, तो उसके हाथ से भोजन - पानी ग्रहण न करे। यदि कोई द्रव्य अकल्प्य द्रव्य से संस्पर्शित हो, तो उस दिन सर्व अकल्पित हो जाता है। दूसरे दिन भी ज्योति के बिना' वह कल्प्य होता है । स्तनपान कराती हुई स्त्री अपने बालक को स्तनपान छुड़ाकर भिक्षा दे, तो वह भिक्षा लेना योग्य नहीं है। यदि वह स्तनपान नहीं करवा रही हो, तो वह भिक्षा देने योग्य है, अर्थात्
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