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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान उसे सामायिक के इन तीन आलापकों के साथ तीनों दण्डक का उच्चारण कराए। फिर शिष्य आसन पर विराजित गुरु के समक्ष खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे - "हे भगवन् ! स्वेच्छापूर्वक आप मुझे सर्वविरति-सामायिक आरोपण हेतु अनुज्ञा दें।" इस प्रकार इन आलापकों के द्वारा छः बार खमासमणा सूत्रपूर्वक वंदन करना, गुरु के द्वारा कहे जाने वाले वाक्य आदि सब पूर्व की भाँति हैं। तत्पश्चात् पुनः खमासमणासूत्र पूर्वक वंदन कर शिष्य कहे - "हे भगवन् ! आज्ञापूर्वक आप मुझे सर्वविरति-सामायिक- आरोपण के लिए निरुद्ध (प्रतिज्ञा) कराए।" तब गुरु आयम्बिल का प्रत्याख्यान कराए। तत्पश्चात् दीक्षा-प्रदाता गुरु साधुओं के हाथ में अभिमंत्रित वासक्षेप दे
और प्रमुख साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं के हाथ में अभिमंत्रित अक्षत दे। फिर गुरु शिष्य का नामकरण करे। नामकरण सप्तविशुद्धियों से युक्त करना चाहिए। सप्त विशुद्धियाँ इस प्रकार है :- १. नक्षत्रयोनिअविरोध २. गणाविरोध ३. वर्गाविरोध ४ नाड्यविरोध ५. राश्याधिपत्यविरोध ७. लभ्यालभ्य विभाग अविरोध । गुरु इन सात विशुद्धियों को देखकर शिष्य का नामकरण करे। नामकरण होने पर सभी साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका शिष्य के सिर पर वासक्षेप और अक्षत डाले। फिर शिष्य समवसरण एवं गुरु की प्रदक्षिणा करके गुरु और अन्य साधुओं को वंदन करे। फिर साध्वीगण तथा श्रावक-श्राविकाएँ उस नवदीक्षित मुनि को वंदन करे। तत्पश्चात् गुरु देशना दे। देशना का स्वरूप इस प्रकार है :
“जीव के लिए मनुष्य, जन्म, श्रुत पर श्रद्धा, संयमसामग्री एवं गीतार्थगुरु" - ये चारों ही परम अंग अत्यन्त दुर्लभ हैं, इत्यादि। यहाँ आचार्य प्रव्रज्या-विधान एवं संयम के महत्त्व का संपूर्णतः व्याख्यान करे और कहे यदि जीव एक दिन का भी चारित्र उत्कृष्ट भाव से पालन करके मरण को प्राप्त होता है, तो चाहे वह मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सके, परन्तु वैमानिक देवलोक को अवश्य प्राप्त करता है, इत्यादि। इस प्रकार दीक्षा के महत्त्व को बताने वाली योग्य गाथाओं की व्याख्या
करे।
यहाँ नियमतः दशवैकालिकसूत्र के क्षुल्लकाचारकथा नामक अध्ययन सहित सामायिकचारित्र के धारक साधुओं के आचार का और
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