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आचारदिनकर (भाग-२).. 10 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
बीस प्रकार की स्त्रियों को भी दीक्षा के लिए अयोग्य माना है, वे इस प्रकार हैं - जो अठारह भेद दीक्षा के अयोग्य परुषों के बताए गए हैं, वे सभी स्त्रियों के लिए भी उसी प्रकार से हैं। उनमें गर्भिणी और बालवत्सा - ये दो भेद और मिलने से दीक्षा के अयोग्य स्त्रियों के कुल बीस भेद होते हैं। बाल आदि अठारह भेद स्त्रियों में भी बताए गए हैं तथा गर्भिणी स्त्री एवं जिसका बच्चा अभी स्तनपान करता हो, इस प्रकार ये दो मिलकर कुल बीस भेद होते हैं।
नपुंसकों में दस प्रकार के नपुंसक दीक्षा के लिए अयोग्य होते हैं। वे इस प्रकार हैं- षंडक, वातिक, क्लीब, कुंभी, ईर्ष्यालु, शकुनि, तत्कर्मसेवी, पाक्षिक-अपाक्षिक, सौगंधिक और आसक्त - ये दस नपुंसक अतिसंक्लिष्ट चित्त वाले होने से प्रव्रज्या के अयोग्य कहे गए
षण्ड का तात्पर्य - जिसकी काम-वासना नारी के समान ही अन्य पुरुष के द्वारा भोगे जाने की हो; स्वर, वर्ण आदि स्त्री एवं पुरुष के लक्षणों की अपेक्षा से विलक्षण हो, जिसका पुरुष चिन्ह अति स्थूल हो, जिसका स्वर स्त्री की तरह कोमल हो, जिसका पेशाब शब्द युक्त एवं झागयुक्त हो - ये छः लक्षण नपुंसक के होते हैं। वातिक, अर्थात् मुकुलित लिंग वाला। जिसका पुरुष चिन्ह स्त्री संभोग के बिना पुनः सहज न हो, उसे वातिक कहा हैं। कुंभी - जिसके अंडकोश कुंभी के समान अति स्थूल हों, उसे कुंभी कहा गया है। ईर्ष्यालु - जो कामित स्त्रियों द्वारा परपुरुष के साथ आलाप एवं दर्शनमात्र से ही ईर्ष्या करने वाला हो। शकुनि - अर्थात् जिसे अति तीव्र कामवासना का उदय हो एवं जिसकी वीर्य आदि सप्त धातुएँ क्षीण होने पर भी कामवासना क्षीण न हो। तत्कर्मसेवी - जो व्यापार आदि पुरुषोचित सब कार्यों को छोड़कर केवल स्त्री-संभोग में रत रहने वाला हो, भोजनादि सभी स्थितियों में भी संभोग की कामना करता हो। पाक्षिका-पाक्षिक - जो स्वपक्ष, अर्थात् पुरुषों के प्रति हस्त मैथुन, गुदा मैथुन आदि में अत्यधिक कामवासना से पीड़ित हो, परपक्ष, अर्थात् स्त्री आदि में कामोत्तेजना वाला न हो। सौगन्धिक - वीर्यपतन होने के पश्चात् जो हमेशा पुरुष चिन्ह को सुगंधित मानकर सूंघता हो। आसक्त - वीर्यपात होने पर भी स्त्री के शरीर का आलिंगन चाहता
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