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________________ आचारदिनकर (भाग - २) 7 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान समान होता है । उसे मुनि के समान ही शान्तिपूर्वक ब्रह्मगुप्तियों का पालन करना चाहिए । "तुम नवदीक्षित साधु-साध्वियों को प्रणाम करना, किन्तु उनसे प्रणाम करवाना नहीं । सिद्धांत रूप आगम ग्रन्थों को छोड़ कर धर्मशास्त्र का अध्ययन करना । व्रतारोपण - संस्कार को छोड़कर गृहस्थों के (शेष ) संस्कार करवाना। साथ ही तुम शान्तिक, पौष्टिक एवं प्रतिष्ठा आदि क्रियाओं को भी करवा सकते हो ।" यह कहकर संघ सहित सूरि, अर्थात् आचार्य “संसार - सागर से पार करने वाले बनो ।" ऐसा कहकर उसके मस्तक पर वासक्षेप डालते हैं । फिर क्षुल्लक गुरु की अनुज्ञा से मुनि की तरह धर्मोपदेश देते हुए तीन वर्ष की अवधि तक विचरण करे तथा संयम की यथावत् परिपालना कर तीन वर्ष पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करे । व्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन न कर पाने पर वह पुनः गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर सकता है। इस प्रकार वर्धमानसूरि विरचित आचारदिनकर में यतिधर्म की पूर्व अवस्थारूप क्षुल्लकत्व - कीर्तन नामक अठारहवाँ उदय समाप्त होता 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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