SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 179 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान करते अर्थात् विहार करने की क्रिया का त्याग करते हैं। सुख-दुख रूप एवं उपद्रव से रहित एक ही स्थान पर रहते हैं। इस काल में साधु गृहस्थों द्वारा स्वयं के लिए लीप-पोतकर साफ किए गए तथा जल के निकास आदि की व्यवस्था जिसमें की गई है, ऐसे रूचिप्रद स्थान पर रहें। प्रत्येक प्रहर में फफूंद के भय से पात्र को प्रमार्जित करे। आरोग्य एवं संयम के लिए विकृति का पूर्णतः त्याग करे। यदि ग्लान मुनि कदाच विकृति का सेवन करता हैं, तो उसमें कोई दोष नहीं है, पुनः स्वस्थ होने पर यथाशक्ति नियम का पालन करे। काष्ठ के आसन पर बैठे और काष्ठ के आसन पर शयन करे। धीरजनों ने प्राणियों की रक्षा के लिए यह प्रक्रिया बताई है। पकवान् अर्थात् पका दुआ अन्न भी दीर्घ समय का हो, तो उसे भी ग्रहण न करे। शय्यातर के घर से आहार-पानी एवं औषधि न लें। पौषधशाला में पूर्व परिगृहीत पात्र और पट्टादि का त्याग न करे और न ही दूसरे नये पात्र, पट्टादि का ग्रहण करे। मुनि जिस दिशा में जल मिलने की संभावना न हो - ऐसे निर्जल स्थान पर अत्यन्त आवश्यक कार्य हो, तो ही सवा योजन या पाँच कोस तक जाएं। रात्रि में वहाँ रूके नहीं और दिन में भी ऐसे स्थान पर न रहें, प्रायः गर्म पानी अर्थात् अचित्त जल या कांजिक जल ग्रहण करें। थोड़ी बहुत वर्षा होने पर भी पाणिपात्र मुनि भिक्षा के लिए तब तक न जाएं जब तक वर्षा बन्द न हो जाएं। पात्रधारी साधु थोड़ी बहुत वर्षा होने पर कामली ओढ़कर क्षुधा परीषह के निवारणार्थ भिक्षा के लिए जा सकते हैं। भिक्षा के लिए निकल जाने पर यदि मूसलाधार वर्षा हो जाए तो, देवकुलिका में, उपाश्रय में या फिर आरामगृह अर्थात् धर्मशाला में रूक जाएं और वर्षा कम होने पर ही गंतव्य स्थान पर जाएं। साधुजन स्नेह, पुष्प, उत्तिंग, प्राणी, अण्डे, फफूंद, बीज एवं हरितकाय (वनस्पतिकाय) - इन आठ सूक्ष्म जीवों की रक्षा करते हैं। ये सूक्ष्म जीव जिस वर्ण की वस्तु होती है, उसी वर्ण का शरीर धारण कर उसके अन्दर रहते हैं। साधु एकनिष्ठतापूर्वक इनकी प्रतिलेखना करें। वर्षा की स्थिति में मुनि यदि गृहस्थ के घर रूक सकते हैं और यदि वे यह देखें कि भोजन पक रहा है, तो वे उसे ग्रहण नहीं कर सकते हैं। वर्षाकाल में कुछ मुनि तप करने की इच्छा रखते हैं तथा कुछ कायोत्सर्ग एवं योगोद्वहन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy