SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 162 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान पात्रस्थापन - पात्रस्थापन नामक उपकरण का उपयोग भिक्षाटन के लिए झोलिका के रूप में तथा पात्रों के नीचे प्रतिष्ठान के रूप में बताया गया है - यह उपकरणों की उपयोगिता है। अब बुद्ध के स्वरूप की व्याख्या करके उनके उपकरणों का वर्णन किया जा रहा है - बुद्ध में एक तो स्वयंबुद्ध होते हैं और दूसरे प्रत्येकबुद्ध। स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं - १. अरिहंत और २. किन्हीं निमित्तों द्वारा स्वंय बोधि को प्राप्त सामान्य मुनि। अरिहंत को चोलपट्टा, उत्तरीय आदि मुनिवेश, पात्र एवं शास्त्र आदि उपधि नहीं होती है, परन्तु स्वयंबुद्ध सामान्य मुनि को उपधि, श्रुत मुनिवेश (लिंग) आदि होते हैं। उन्हें पूर्व जन्म के स्मरण से बोधि की प्राप्ति होती है। उनकी उपधि बारह प्रकार की होती है - मुखवस्त्रिका, रजोहरण, कल्प (तीन वस्त्र), सात प्रकार की पात्र की उपधि - इस पकार स्वयंबुद्ध साधुओं की उपधि बारह प्रकार की होती है। उनका श्रुतज्ञान पूर्वाधीत और इस जन्म-सम्बन्धी दोनों ही प्रकार का होता है। पूर्वाधीत श्रुत वाले बुद्धों को लिंग (रजोहरण) आदि देवता अर्पण करते हैं, या वे स्वयं गुरु के पास जाकर वेश ग्रहण करते हैं तथा जिनको उसी भव में श्रुत अधीत होता है, उनको गुरु ही वेश प्रदान करते हैं। स्वयंबुद्ध मुनि की इच्छा हो, तो वे गच्छ में रह सकते हैं, अन्यथा एकाकी विहार कर सकते हैं। अब प्रत्येकबुद्ध साधु के सम्बन्ध में विवेचन है - इस अवसर्पिणी काल में चार प्रत्येकबुद्ध हुए हैं - १. करकंडु २. दुर्मुख ३. नमि एवं ४. नग्ग। इन्होंने क्रमशः प्रथम ने वृषभ के दृष्टांत से, दूसरे ने वादल के दृष्टान्त से, तीसरे ने कंकण के दृष्टांत से और चौथे ने रसालद्रुम के दृष्टांत से बोधि को प्राप्त किया। प्रत्येकबुद्ध की जघन्य उपधि दो प्रकार की होती हैं - १. मुखवस्त्रिका और रजोहरण २. मुखवस्त्रिका, रजोहरण सहित सात प्रकार की पात्र उपधि। इनका श्रुतज्ञान पूर्वाधीत ही होता है। जघन्य से ग्यारह अंग एवं उत्कृष्टतः देशोन (दस में कुछ कम) दस पूर्व की श्रुत-संपदा होती है। उनको रजोहरणादि लिंग शासन देवता देते हैं, अथवा लिंगरहित भी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy