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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 154 . जैनमुनि जीवन के विधि-विधान “पत्तं इत्यादि" - इस श्लोक से पात्र का तात्पर्य अशन-पान को ग्रहण करने, रखने एवं आहार करने के योग्य पात्र से है। पात्र तीन प्रकार के होते हैं - काष्ठ के, तुम्बी के एवं मिट्टी के। स्वर्ण, वाँदी, मणि, ताम्र, कांस्य, लोहा, हाथीदाँत एवं चर्म के पात्र साधु-साध्वियों के लिए ग्राह्य नहीं होते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है - “जो कांसे के प्याले, कांसे के पात्र और कुण्डभेद (कांसे के बने कुण्डाकार बर्तन) में आहार-पानी लेता है और खाता है, वह श्रमणाचार से भ्रष्ट होता है। बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और धोए हुए पानी को डालने में प्राणियों की हिंसा होती है। इस कार्य में तीर्थंकरों ने असंयम बताया है। गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से ‘पश्चात्कर्म और पुरःकर्म' की सम्भावना रहती है", इसलिए गृहीपात्र में भोजन करना निर्ग्रन्थ के लिए कल्प्य नहीं है। “अलाबु पात्र" के कथन में नारियल के पात्र को भी अन्तर्निहित किया गया है। पात्रबन्ध - पात्र बांधने की झोली को पात्रबन्ध कहते हैं। पात्रस्थापन - मुनि जिस झोली में पात्र रखकर भिक्षाटन करते हैं, उसे पात्र स्थापन कहा जाता है। पात्र केशरिका (पूंजणी) - यह पात्र के प्रतिलेखन हेतु अनिवार्य है। पटल (पड़ला) - वस्त्र से निर्मित पड़ला, जो पात्रों को ढकने के लिए होता है, इसे हाथ के ऊपर डाला जाता है। रजस्राण - पात्रों को वेष्टित करने वाला वस्त्र। गुच्छक - पात्रबन्ध को नीचे और ऊपर से ढंकने के लिए ऊन से निर्मित वस्त्र को गुच्छक कहते हैं। इसे “प्रतिष्ठानम्" भी कहते हैं। नीचे का गुच्छक पृथ्वी, आकाश एवं वनस्पति के संघट्ट (संस्पर्शन) का निवारण करने के लिए एवं ऊपर का गुच्छक आतप के निवारण के लिए होता है। __ पात्र-निर्योग - गुच्छक बाँधने एवं तर्पणी बांधने के लिए डोरी आदि उपकरण पात्र-निर्योग (उपधि), अर्थात् पात्र-सम्बन्धी उपकरण के अन्तर्गत समाहित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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