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________________ 134 आचारदिनकर (भाग-२) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान एवं अक्षत से युक्त अक्षपोट्टलिका को उनके हाथ में दे। शिष्य भी मंत्र को तथा गन्ध एवं अक्षत से युक्त अक्षपोट्टलिका को परम आस्तिक्य, अर्थात् अहोभाव से ग्रहण करे। फिर गुरु नवीनाचार्य का उसके पूर्व नाम से संबंधित, सात प्रकार की शुद्धियों से युक्त, गुरु-परम्परा के अनुरूप या देवताओं द्वारा उपदिष्ट नामकरण करे। तत्पश्चात् संघ नवीनाचार्य पर सुगन्धित चूर्ण डाले। फिर गुरु अपने आसन पर बैठे। सर्व साधुओं के साथ गुरु भी मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके आचार्य के पद पर विराजित नवीनाचार्य को वंदन करे। पुनः नवीनाचार्य भी आसन पर विराजित गुरु को उसी प्रकार से वन्दन करे। समान पद की प्रसिद्धि के लिए दोनों को परस्पर वंदन करने में कोई दोष नहीं है। फिर गुरु नवीनाचार्य से कहे - “व्याख्यान दो।" नवीनाचार्य अपने ज्ञान सामर्थ्य के अनुरूप नंदी आदि का व्याख्यान दे। व्याख्यान के बाद साधु व साध्वियाँ, श्रावक एवं श्राविकाएँ नवीनाचार्य को वन्दन करे। तदनन्तर नवीनाचार्य गुरु के आसन से उठकर स्वयं के आसन पर बैठे। गुरु अपने आसन पर बैठकर नवीनाचार्य को हितशिक्षा दे। वह हितशिक्षा इस प्रकार है - - “आप धन्य हैं, आपने वज्र से भी दुर्भेद संसाररूपी पर्वत को ध्वस्त करने वाले महान् जिन-आगम को जान लिया है। आपको जिस पद पर आरोपित किया गया है, वह सत् संपदा का एक पद है, जो लोक में अति उत्तम है और महापुरुषों द्वारा सेवित है। इस संसार-सागर को पार कराने वाले भी धन्य हैं, जो इसके पार गए हैं, वे भी धन्य हैं और जो पार जाते हैं, वे भी धन्य हैं। भयावह संसाररूपी वन से पार कराने में समर्थ सभी साधुवृन्द आपके शरणागत हों। अनेक गुणों के धारक निर्मल परमात्म तत्त्व को प्राप्त करके जो सांसारिक जीवों को शरण देते हैं, वे भी धन्य हैं। आप भावरोग से पीड़ित लोगों के लिए श्रेष्ठभाव वैद्य हैं। आप सत्-संस्कार से युक्त जीवों को प्रयत्न पूर्वक विमुक्त कराने वाले हैं। मोक्षरूपी लक्ष्य के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध और निस्पृही अप्रमत्त लोगों के हित को ध्यान में रखकर गुरु उन्हें संसार से विमुक्त कराते हैं। आप अपने पद के अनुरूप मुनि-आचार के कल्प का निर्धारण करके सदा चेष्टापूर्वक उसका प्रतिपादन करने वाले हो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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