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थी। साथ ही हमारे सामने एक कठिनाई यह भी थी कि जो मूलग्रन्थ प्रकाशित हुआ था, वह इतना अशुद्ध छपा था कि अर्थ बोध में अनेकशः कठिनाईयाँ उपस्थिति होती रही,, अनेक बार साध्वी जी और मैं उन समस्याओं के निराकरण में निराश भी हुए फिर भी इस ग्रन्थ का प्रथम खण्ड पूर्ण होकर प्रकाशित हो रहा है यह संतोष का विषय है। ग्रन्थ तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना है। इसका प्रथम खण्ड विद्वानों और पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। दूसरे और तीसरे खण्ड का अनुवाद भी पूर्ण हो चुका है, उनके कुछ अंश स्पष्टीकरण या परिमार्जन हेतु पूज्य मुनि प्रवर जम्बूविजयजी और मुनि श्रीयशोविजय जी को भेजे गये है, वे अंश उनके द्वारा संशोधित होकर मिलने पर अग्रिम दो खण्डों के प्रकाशन को भी गति मिलेगी। पूज्या साध्वी मोक्षरत्नाश्रीजी इसी प्रकार आगे भी जिनवाणी के अध्ययन, अनुशीलन और प्रकाशन में रूचि लेती रहें, यही अपेक्षा है। विद्वतजन जिस कार्य को चाहकर भी अभी तक सम्पन्न नहीं कर पाये थे। उसे मेरे सहयोग से एक अल्प दीक्षापर्याय की युवा साध्वी ने अथक परिश्रम कर पूर्ण किया यह मेरे लिए भी आत्मतोष का विषय है। वस्तुतः मैंने उन्हें शोधकार्य हेतु इस ग्रन्थ का नाम सुझाया था, किन्तु अनुवाद के बिना यह कार्य शक्य नहीं हो रहा था। हमने अनुवाद की प्राप्ति के प्रयास भी किये, किन्तु वे सार्थक नहीं हो सके। अतः प्रथमतः अनुवाद की योजना बनाई गई, प्रस्तुत कृति उसी की फलश्रुति है। विद्वत्वर्ग द्वारा इसके समुचित मूल्यांकन की अपेक्षा है, ताकि साध्वी जी का उत्साह वर्धन हो।
शरद पूर्णिमा वि.सं. 2062 दिनांक :- 17-10-2005
प्रो. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक
प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड़, शाजापुर (म.प्र.)
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