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हैं और न तत्सम्बन्धी किसी विधि विधान का उल्लेख हैं । दिगम्बर परम्परा के पुराण ग्रंथों में भी इनमें से अधिकांश संस्कारों का उल्लेख हुआ हैं, किन्तु उपनयन आदि संस्कार जो मूलतः हिन्दू परम्परा से ही सम्बन्धित रहे हैं, उनके उल्लेख विरल है। दिगम्बर परम्परा में मात्र यह निर्देश मिलता हैं कि भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने व्रती श्रावकों को स्वर्ण का उपनयन सूत्र प्रदान किया था। वर्तमान में भी दिगम्बर परम्परा में उपनयन (जनेउ ) धारण की परम्परा है। इस प्रकार जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही प्रमुख परम्पराओं में एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में इन संस्कारों के निर्देश तो हैं, किन्तु मूलभूत ग्रन्थों में तत्सम्बन्धी किसी भी विधि-विधान का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । वर्धमानसूरि की प्रस्तुत कृति का यह वैशिष्ट्य है, कि उसमें सर्वप्रथम इन षोडश संस्कारों का विधि-विधान पूर्वक उल्लेख किया गया है। जहाँ तक मेरी जानकारी हैं, वर्धमानसूरिकृत इस आचारदिनकर नामक ग्रन्थ से पूर्ववर्ती किसी भी जैन ग्रन्थ में इन षोडश संस्कारों का उनके विधि-विधान पूर्वक उल्लेख नहीं हुआ । मात्र यहीं नहीं परवर्ती ग्रन्थों में भी ऐसा सुव्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा में षोडश संस्कार विधि, जैन विवाहविधि आदि के विधि-विधान से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थ हिन्दी भाषा में प्रकाशित हैं, किन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, श्वेताम्बर परमपरा में वर्धमानसूरि के पूर्व और उनके पश्चात् भी इन षोडश संस्कारों से सम्बन्धित कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया। इस प्रकार जैन परमपरा में षोडश संस्कारों का विधिपूर्वक उल्लेख करने वाला यही एकमात्र अद्वितीय ग्रन्थ हैं। वर्धमानसूरि की यह विशेषता हैं, कि उन्होंने गर्भाधान संस्कार को हिन्दू परम्परा के सीमान्त संस्कार के पूर्व रूप में स्वीकार किया हैं और यह माना हैं कि गर्भ के स्पष्ट लक्षण प्रकट होने पर ही यह संस्कार किया जाना चाहिए । इस प्रकार उनके द्वारा प्रस्तुत गर्भाधान संस्कार वस्तुतः गर्भाधान संस्कार न होकर सीमान्त संस्कार का ही पूर्व रूप हैं । वर्धमानसूरि ने गृहस्थ सम्बन्धी जिन षोडश संस्कारों का विधान किया हैं, उनमें से व्रतारोपण को छोड़कर शेष सभी संस्कार हिन्दू परम्परा के समरूप ही प्रस्तुत किए गए हैं, यद्यपि संस्कार सम्बन्धी विधि-विधान में जैनत्व को प्रधानता दी गई हैं और तत्सम्बन्धी मंत्र भी जैन परम्परा के अनुरूप ही प्रस्तुत किए गए हैं। वर्धमानसूरि द्वारा विरचित षोडश संस्कारों और हिन्दू परम्परा में प्रचलित षोडश संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि इस ग्रन्थ में हिन्दू परम्परा के षोडश संस्कारों का मात्र जैनीकरण किया गया हैं । किन्तु जहाँ हिन्दू परम्परा में विवाह संस्कार के पश्चात् वानप्रस्थ संस्कार का उल्लेख होता है, वहाँ वर्धमानसूरि ने विवाह संस्कार के पश्चात् व्रतारोपण संस्कार का उल्लेख किया है । व्रतारोपण संस्कार वानप्रस्थ संस्कार से भिन्न है,
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