________________
षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 94 सम्मान, दान और विनय का मैं धर्मबुद्धि से त्याग करता हूँ। धर्म-बुद्धि से अन्य धर्म-संघ में तप, दान, स्नान, होम आदि नहीं करूंगा, किंतु उनमें जयणा (यत्न) पूर्वक उचित कर्म मेरे द्वारा करणीय हैं। यथाशक्ति दिन में तीन या पांच या सात बार चैत्यवंदन करूंगा। एक बार या दो बार सुसाधुओं को वंदन करूंगा तथा उनका सत्संग करूंगा। दिन में नित्य एक बार, दो बार, तीन बार जिनपूजा एवं स्नान करूंगा और कुलाचार का पालन करूंगा। सर्वजीवों का प्राणवध नहीं करूंगा। अकरणीय कार्य नहीं करूंगा और एकेन्द्रिय जीवों की यथाशक्य रक्षा करूंगा।
कन्या, पशु, भूमि, धरोहर आदि सम्बन्धी मिथ्याकथन के वर्जन रूप पांच नियमों को ग्रहण करता हूँ। जो कारागार तथा राजनिग्रह का हेतु है, ऐसे धन की चोरी करने के कार्य का मैं मन, वचन और काया से करने और कराने का त्याग करता हूँ| देव, देवी सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से करने और कराने का तथा मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन तथा शरीर से करने का त्याग करता हूँ, जो कि मुझे मुक्ति का अनुभव कराने वाला है।
मैं मनुष्य-जन्म में जीवन पर्यन्त परस्त्री एवं परपुरूष के साथ काया से मैथुन का वर्जन करता हूँ और परस्पर (अपनी स्त्री के साथ) भी संयम का पालन करूंगा।
इसी प्रकार नौ प्रकार के परिग्रह का परिमाण किया जाता है। मैं मात्र इतने रूपए, इतने सोने के सिक्कों का ग्रहण करूंगा। इसी प्रकार अन्य वस्तु भी इतनी संख्या में या इतने वजन में संचित करूंगा। जैसे - धान्य आदि इतने परिमाण में (तोल-माप की अपेक्षा) रखूगा। भूमि के सम्बन्ध में नगर, गाँव, बाजार आदि में इतने भवन या गृह का तथा कृषि भूमि का परिमाण करता हूँ। मात्र इतना सोना, इतनी चांदी एवं इतना कांसा, तांबा, लोहा, रांगा एवं सीसा घर में रखूगा। ज्यादा से ज्यादा इतने दास-दासी या सेवक रखूगा। इतनी संख्या में हाथी, घोड़े, बैल, गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि इतनी गाड़ी, रथ, हल आदि रखूगा। जीवन पर्यन्त दसों दिशाओं में इतने योजन भूमि तक व्यापार या भोग-उपभोग निमित्त जाना-आना रखूगा, उससे आगे उक्त हेतु जाने का त्याग करता हूँ। अपनी शक्ति के अनुसार तीर्थ यात्रा हेतु भी जयणा रखूगा। भोग-उपभोग परिमाण के अन्तर्गत अत्यधिक हिंसा से युक्त पन्द्रह कर्मादान, अर्थात्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org