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________________ षोडश संस्कार 1 आचार दिनकर 81 साथ निवास करना । मकान में से बाहर निकलने एवं प्रवेश करने के अनेक द्वार नहीं हो। उसे सदाचारी की संगति और माता-पिता की भक्ति करनी चाहिए । उपद्रव वाले स्थान को त्याग देना चाहिए, अर्थात् वह स्थान छोड़कर अन्य जगह जाकर रहना चाहिए । निंदनीय कार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। आय के अनुसार व्यय करना चाहिए। अपनी सम्पत्ति के अनुसार वस्त्राभूषण आदि पहनना चाहिए । बुद्धि के आठ गुणों को विकसित करना चाहिए । निरंतर धर्म सुनने जाना चाहिए। अजीर्ण हुआ हो, तो भोजन नहीं करना चाहिए। समय पर शांत-चित्त से भोजन करना चाहिए। धर्म, अर्थ एवं काम इन तीन वर्गों का परस्पर विरोध-रहित सेवन करना चाहिए। अतिथि, साधु और दीन व्यक्ति की यथायोग्य भक्ति करनी चाहिए। कभी भी अनुचित कदाग्रह नहीं रखना चाहिए। गुणवान् पुरूषों के गुण के विषय में आग्रह रखना चाहिए । निषेध किए हुए देश में या निषेध किये गये काल में, गमन नहीं करना चाहिए । स्वयं की शक्ति या निर्बलता को जानना चाहिए। व्रत को धारण करने वाले, ज्ञान से या उम्र से वृद्ध व्यक्तियों का योग्यता के अनुसार आदर सत्कार करना चाहिए । पोषण करने योग्य का पोषण करे और दीर्घ दृष्टिवान् होना चाहिए। विशेषज्ञ, लोक को वल्लभ, लज्जावान्, दयावान्, सौम्य प्रकृतिवाला, परोपकार करने में तत्पर, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष इन छः अभ्यन्तर शत्रुओं को परिहार करने में प्रयत्नशील और इन्द्रियों के समूह को वश में करने वाला मनुष्य गृहस्थ धर्म के योग्य होता है ।" इस प्रकार के पुरूष का व्रतारोपण करना चाहिए। इस संस्कार में गुरू शिष्य के संवाद (कथन) प्रायः प्राकृत भाषा में हैं, क्योंकि गर्भाधान से लेकर विवाह तक के सारे संस्कारों में प्रायः गुरू के ही वचन हैं, शिष्य के वचन नहीं हैं । प्रायः गुरू शास्त्रज्ञ एवं संस्कृत बोलने वाले होते हैं, अतः इन संस्कारों में संस्कृत भाषा का प्रयोग मुख्य रूप से हुआ है। यहाँ व्रतारोपण संस्कार में बालक, स्त्री एवं शिष्यों के वचन भी क्षमाक्षमण के प्रति हैं। संस्कृत भाषा में उच्चारण करने में असमर्थ होने के कारण वे प्राकृत में बोलते हैं। उनके साथ-साथ उन्हें समझाने के लिए गुरु भी प्राकृत में बोलते हैं, अर्थात् गुरू के कथन भी प्राकृत में होते हैं। जैसा कि आगम में कहा गया है — "दृष्टिवाद को छोड़कर कालिक एवं उत्कालिक अंग - सिद्धांतो को जिनवरों ने स्त्री एवं बालक आदि के बोध के लिए प्राकृत में कहा है ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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