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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 420 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति जगत् को सर्वप्रथम आचार का बोध देने वाले प्रथम राजा, प्रथम मुनि, प्रथम अरहंत एवं प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान् की जय हो। अनंत विज्ञान एवं ज्ञान को प्रकाशित करने वाले चरमतीर्थाधिपति भगवान् महावीरस्वामी की जय हो। विविध सिद्धियों-लब्धियों के धारक, कल्याणकारी, तत्त्ववेत्ता, दयानिधि, गणनायक, इन्द्रभूति हुए तत्पश्चात् श्री वर्धमानस्वामी के शिष्य गणेश्वर सुधर्मास्वामी हुए। सुधर्मास्वामी से लेकर षष्ठ पट्टधर भद्रबाहु की परम्परा तक के मुनि अविभक्त होकर ही रहते थे। तत्पश्चात् साधुओं के अनेक गण (वर्ग) अस्तित्व में आए और उन गणों से शाखाएं एवं कुल निकले, उसमें एक गण कोटिकगण था। उसमें आचार्य वज्रस्वामी से वज्री शाखा निकली, उसी में से चंद्रकुल अस्तित्व में आया। उसी चंद्रकुल में भद्रदर्शन वाले, हाथियों के लिए सिंह के समान वादीरूप श्री हरिभद्रसूरि हुए। इसमें आश्चर्य की बात यह है कि उन्होंने याकिनी महत्तरा के मुख से पदांश को सुनकर हृदय में सम्यक्त्व को प्रकट किया तथा बौद्ध- भिक्षुओं के विचित्र षडयंत्र से अपने दो मुनियों की हत्या के बाद भी उन बौद्ध-मुनियों की रक्षा की, अतः उनका चित्त में सदैव स्मरण किया जाता है। उनके पाट पर मोहरूपी अंधकार तथा संसाररूपी ताप से पीड़ितजनों को चंद्र के समान शीतलता प्रदान करने वाले देवचन्द्रसूरि हुए। तत्पश्चात् उनके पट्ट पर नेमीचन्द्र सूरि हुए। उसके बाद उनकी पट्ट-परम्परा में (धर्म का) उद्योत करने वाले उद्योतनसूरि हुए। फिर उनके पाट पर दुर्वादियों के मद का नाश करने वाले एवं समस्त जिनशासन की वृद्धि करने वाले श्री वर्धमानसूरि हुए। उनके पाट पर, शरद-पूर्णिमा की किरणें जैसे समुद्र को स्पर्शित कर उसमें ज्वार लाती हैं, अर्थात् वृद्धि करती हैं, उसके सदृश जिनेश्वर मत को विस्तृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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