________________
आचारदिनकर (खण्ड-४)
391 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ३७. पताका-मुद्रा - दाएँ हाथ को खड़ा करके करतल को नीचे लटकते हुए या झूलते हुए रखने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे पताका-मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा सर्व विघ्नों को उपशान्त करने वाली है।
३८. घण्टा-मुद्रा - मुष्टि बाँधकर हाथ को कम्पित करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे घण्टामुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा पूजा आदि कार्यों में उपयोगी है।
३६. प्रायश्चित्त विशोधिनी-मुद्रा - दाएँ हाथ से बाएँ हाथ की अंगुलियों को चटकाने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे प्रायश्चित्त विशोधिनी-मुद्रा कहते हैं। यथाजात नामक यह मुद्रा प्रायश्चित्तकारी या पाप विशोधनकारी है।
४०. ज्ञानकल्पलता-मुद्रा - नासिका के आगे, नाभि पर, भाल पर, अथवा भौहों पर दाएँ हाथ के अंगुठे पर तर्जनी अंगुली स्थापित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे ज्ञानकल्पलता (ज्ञान)-मुद्रा भी कहते हैं। यह मुद्रा योग-सिद्धिकारी है।
४१. मोक्षकल्पलता-मुद्रा - अंगूठों को अंगुलियों के समूह से अलग करके नाभि से अंगुलियों को चालित करते हुए द्वादश तक ले जाने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे मोक्षकल्पलता-मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा नाम के अनुरूप फल प्रदान करने वाली है।
४२. कल्पवृक्ष-मुद्रा - दोनों भुजाओं को कोहनियों से मिलाकर अंगुलियों को फैलाने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे कल्पवृक्ष-मुद्रा कहते हैं।
महागम में इस प्रकार इन बयालीस मुद्राओं की व्याख्या की गई है। इसके अतिरिक्त काम में आने वाली अन्य मुद्राएँ भी प्रबुद्धजनों द्वारा प्रकल्पित हैं।
उन सबका अन्तर्भाव इन मुद्राओं में हो जाता है। कमों के वैविध्य के आधार पर ये मुद्राएँ कही गई हैं। अंकुश. का आकार करने से अंकुश-मुद्रा होती है। मध्य शरीर को आकुंचित कर लपेटने से स्नान-मुद्रा होती है। इसी प्रकार से अपने-अपने कार्यों के अनुसार मुद्राएँ कही गई हैं। समाधान की मुद्रा तो अपना पूर्ण समाधान से ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org