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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 389 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि २१. योग-मुद्रा - योग पट्टासन में स्थित होकर बाएँ हाथ को जानु पर, अथवा सिर पर रखने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे योग-मुद्रा कहते हैं। २२. कच्छप-मुद्रा - स्वेच्छापूर्वक सुखासन में बैठकर पालथी के बीच बाएँ हाथ को फैलाकर उसके ऊपर दायां हाथ रखने से कच्छपाकार की जो आकृति निष्पन्न होती है, उसे कच्छप-मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा स्तम्भनकारी है। २३. धनुःसंधान-मुद्रा - पद्मासन में स्थित होकर बाएँ हाथ को फैलाकर भूमि का स्पर्श करने तथा दाएँ हाथ की मुष्टि बांधकर उसे आकाश में ऊपर की ओर स्थित करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे धनुःसंधान-मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा सर्वभयों का हरण करने वाली है। २४. योनिमुद्रा - सौभाग्यमुद्रा की भाँति मध्यमा को रखकर उसके मध्य में दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों को स्थापित करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे योनि-मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा वांछित फल को प्रदान करने वाली है। २५. दण्डमुद्रा - सुखासन में बैठकर दाएँ हाथ को मुष्टिबद्ध करके खड़े करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे दण्डमुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा कुलवृद्धिकारी है। २६. सिंहमुद्रा - उत्कटिक आसन में स्थित होकर बाएँ हाथ को भूमि पर स्थापित कर दाएँ हाथ को अभयमुद्रा में रखने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे सिंह-मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा भय का हरण करने वाली है। २७. शक्तिमुद्रा - दोनों हाथों की मध्यमा एवं तर्जनी अंगुलियों को आगे-आगे योजित करने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे शक्तिमुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा प्रतिष्ठादि कार्यों में उपयोगी है। २८. शंखमुद्रा - तर्जनी एवं मध्यमा - इन दोनों अंगुलियों को अंगूठे के नीचे रखकर अनामिका एवं कनिष्ठिका - इन दोनों अंगुलियों को फैलाने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे शंखमुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा सर्वार्थ जयदायिनी है। Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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