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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
387 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
निष्पन्न होती है, उसे गरुड़मुद्रा कहते हैं । इसका प्रयोग विषापहार हेतु
किया जाता है ।
५. जिनमुद्रा दोनों पैरों के बीच आगे की तरफ चार अंगुल और पीछे की तरफ कुछ कम अंतर रखकर खड्गासन से कायोत्सर्ग करने को जिनमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा सुप्रतिष्ठाकारी है। ६. मुक्ताशुक्ति- मुद्रा बीच में थोड़ा अवकाश रखकर दोनों हाथों को बराबर जोड़कर ललाटप्रदेश पर स्पर्श करने से मुक्ताशुक्ति - मुद्रा निष्पन्न होती है । यह मुद्रा पुण्यवृद्धिकारी है ।
७. अंजलिमुद्रा - दोनों हाथों की अंगुलियों को किंचित्मात्र झुकाकर दोनों हाथों को जोड़ने से अंजलिमुद्रा निष्पन्न होती है। यह मुद्रा विनयकारी है।
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८. सुरभिमुद्रा ( धेनुमुद्रा ) - दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों से दोनों अनामिका एवं दोनों मध्यमा अंगुलियों को दोनों तर्जनी अंगुलियों से संयोजित करने पर गाय के स्तनाकार जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे सुरभिमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा वांछितफलदायिनी है ।
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६. पद्ममुद्रा बिना खिले हुए कमल-पुष्प के आकार में दोनों हाथों को मिलाकर बीच में कर्णिका के आकार में दोनों अंगूठों को रखने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे पद्ममुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा लक्ष्मीप्रदायिनी है।
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१०. चक्रमुद्रा - बाएँ हाथ की हथेली में दाएँ हाथ का कांडा रखकर अंगुलियों को खोलकर ( खुली करके) फैलाने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे चक्रमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा सर्वरक्षाकारी है । ११. सौभाग्यमुद्रा - दोनों हाथों को एक-दूसरे के सामने खड़ा रखकर अंगुलियों का परस्पर वेणीबन्ध करें, तत्पश्चात् दोनों तर्जनी अंगुलियों द्वारा दोनों अनामिका अंगुलियों को पकड़कर, दोनों मध्यमा अंगुलियों को सीधी रखकर उनके मूल में दोनों अंगूठों को डालने से ( रखने से ) जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे सौभाग्यमुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा सौभाग्यकारी है।
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